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Tuesday, May 3, 2011

धरती से टकराएगा सौर तूफान!


यह कोई माया कलेंडर की भविष्यवाणी नहीं है, बल्कि ब्रह्मांड वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि वर्ष 2012 में भयंकर सौर तूफान के धरती से टकराने के कारण भारी धन और जन की क्षति हो सकती है। पिछले वर्ष अमेरिकी खगोलविदों ने 2012 में धरती से सौर तूफान के टकराने की भविष्यवाणी की थी। अब उनका आकलन है कि अभी तक इसे जितना ताकतवर समझा जा रहा था, यह उससे कहीं अधिक ज्यादा होगा। पृथ्वी से यह दस करोड़ हाइड्रोजन बमों की शक्ति से टकराएगा। इस साल के शुरुआत में इसी तूफान के चलते अंतरिक्ष में अद्भुत रोशनियां दिखाई दी थी। नासा ने चेतावनी दी है कि जो चकाचौंध उन्होंने देखी है, वह अंतरिक्ष में बन रहे भीषण सौर तूफान का एक संकेत मात्र है। इस सौर तूफान में इतनी शक्ति होगी कि यह पूरी धरती की विद्युत व्यवस्था को ठप कर देगा। इस बात के खंडन के बावजूद नासा 2006 से इस तूफान पर नजर रख रहा है। पिछले माह आई नासा की रिपोर्ट में यह दावा किया गया था कि यह तूफान 2012 में धरती से टकरा सकता है। 1859 और 1921 में भी इसी तरह के तूफान ने दुनिया भर में हलचल मचा दी थी और बड़े पैमाने पर टेलीग्राफ तारों के क्षतिग्रस्त होने का कारण बना था। 2012 में आने वाले सौर तूफान के इससे भी ज्यादा विध्वंसक होने की आशंका जताई गई है। खगोल विज्ञान के प्रोफेसर डेव रेनेक ने इस बारे में कहा, सौर खगोलविदों के बीच आम राय यह है कि आने वाला यह सौर तूफान (2012 या 2013 तक आने की आशंका) पिछले 100 सालों में सबसे ज्यादा अशांति लाने वाला सिद्ध होगा। सूर्य अब अपनी सुसुप्त अवस्था से धीरे-धीरे जाग रहा है। उसके पूरी तरह से जागने पर भयंकर सौर लपटें उठेंगी, जो तूफान बनकर धरती पर भयंकर तबाही मचाएंगी। यह तूफान सभी कृत्रिम उपग्रहों को नष्ट कर देगा, जिससे पूरी संचार व्यवस्था और हवाई सेवाएं ठप हो जाएंगी। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने वाशिंगटन में अमेरिकन एसोसिएट फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस की सालाना बैठक में इस मुद्दे पर विस्तृत विचार विमर्श किया है। इससे पहले 1972 में भी सोलर तूफान आया था, जिसने अमेरिका के इलिनॉयस में टेलीफोन संचार व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा की थी। कनाडा के क्यूबेक में 1989 में इस वजह से पूरे शहर की बिजली गुल हो गई थी। इन दोनों ही घटनाओं का असर सीमित स्थान पर दिखा था। पर 2012-13 में आने वाले सोलर तूफान पूरी दुनिया को चपेट में ले सकता है। नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार अगले तीन वर्षो के दौरान उसकी सतह पर उठने वाली सौर लपटों का प्रभाव हमारी धरती पर भी पड़ेगा। इसकी शुरुआत 1 अगस्त 2010 से हो चुकी है और यह सौर सक्रियता 2013-14 तक जारी रहेगी। इस वर्ष की 14 फरवरी की रात में सूरज की सतह पर हुए विस्फोट से चीन का रेडियो संचार बाधित हो गया था। हालांकि यह पिछले विस्फोटों के मुकाबले बहुत छोटा था। पर 2013-14 तक सूरज की सतह पर कई विस्फोट होंगे, जिससे पूरी धरती की जलवायु और मौसम भी बदल सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में हमारी धरती बड़े सौर तूफानों से निकली तरंगों से प्रभावित हो सकती है। सूर्य के कोरोना से निकलने वाली अस्वाभाविक चुंबकीय लपटों से विद्युत आवेशित बादल हमारी पृथ्वी की ओर बढ़ने लगे हंै। वैज्ञानिकों ने धरती पर सौर-सुनामी आने की चेतावनी दी है। नासा के सोलर डायनोमिक्स आब्जर्वेटरी (एसडीओ) सहित कई उपग्रहों ने 1 अगस्त 2010 को सूर्य के सन-स्पाट 1092 से छोटी सौर लपटें रिकार्ड की हैं, जो आकार में पृथ्वी के बराबर हैं। उपग्रहों ने ठंडी गैसों के बड़े-बड़े तंतु भी रिकॉर्ड किए हैं, जो सूर्य के उत्तरी गोला‌र्द्ध में फैले हुए हैं। अंतरिक्ष में इसमें धमाका भी हुआ है। न्यू साइंटिस्ट ने खबर दी है कि यह सूर्य के कोरोना का हिस्सा है। इस धमाके को कोरोनल विस्फोट कहा जा रहा है। यह अविश्वसनीय रूप से नौ करोड़ 30 लाख मील तक फैल चुकी है। यह सौर सुनामी पृथ्वी की ओर बहुत तेजी से बढ़ रही है। इसमें कहा गया है कि जब ये उच्छृंखल बादल टकराएंगे तो वे कभी भी धु्रव के ऊपर आकाश में तेज रोशनी उत्पन्न कर सकते हैं और ये उपग्रहों के लिए खतरा उत्पन्न कर सकते हैं। हालांकि गंभीर रूप से खतरा नहीं है, लेकिन सूर्य की सतह पर जब कोई बड़ी सौर लपट उठेगी तो उसका प्रभाव धरती पर पड़ सकता है। सूरज की सतह पर उठने वाली विशाल सौर लपटें या ज्वालाएं हमारी धरती के वातावरण को भी प्रभावित करेंगी। नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार, अगले तीन वर्षो में सौर गतिविधियां इतनी बढ़ जाएंगी कि हम धरतीवासियों के लिए विनाशकारी साबित होंगी। अभी से इस प्राकृतिक आपदा की काट खोजी जाने लगी है। पिछले सप्ताह दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने इन विनाशकारी लपटों से धरती को बचाने के लिए वाशिंगटन में आयोजित अंतरिक्ष सम्मेलन में विचार-विमर्श किया है। इस समस्या के आकलन के लिए नासा सोलर डायनामिक्स आब्जरवेटरी सहित दर्जनों उपग्रहों का प्रयोग कर रहा है। दो साल पहले नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज द्वारा इस समस्या का गंभीरता से अध्ययन किया गया। इस रिपोर्ट में पहली बार इसके सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का उल्लेख किया गया था। नासा के अनुसार, हर 22 साल बाद सूरज की चुंबकीय ऊर्जा का चक्र शीर्ष पर होता है। इसके साथ ही हर 11 साल की अवधि में इससे निकलने वाली लपटों की संख्या सर्वाधिक होती है। सूरज के इन दोनों विनाशकारी अवगुणों वाली अवधि साल 2013 में एक साथ मिल रही है। इससे सूरज से सबसे ज्यादा विकिरण हो सकता है। इससे निकलने वाली लपटों और चुंबकीय ऊर्जा में तेजी से वृद्धि हो सकती है। यह धरतीवासियों के लिए खतरनाक होगा। सौर ज्वालाओं से फूटने वाला यह विकिरण वैज्ञानिक भाषा में विद्युत चुंबकीय ऊर्जा के नाम से जाना जाता है। इसमें वे तमाम किरणें समाई रहती हैं, जिन्हें हम आमतौर पर गामा किरणें, एक्स किरणें, पराबैंगनी किरणें आदि नामों से पुकारते हैं। सूरज से आने वाली समस्त ऊर्जा इन्हीं विकिरणों के रूप में वायु में धरती तक पहुंचती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, इन सौर लपटों की शक्ति सैकड़ों हाइड्रोजन बमों के बराबर होती है। इसकी विद्युत चुंबकीय शक्ति हमारी दूरसंचार प्रणाली, विद्युत आपूर्ति व्यवस्था और अंतरिक्ष में घूमते उपग्रहों को ठप कर सकती है। हाईटेक तकनीकों पर इसका गहरा असर पड़ सकता है। पिछली बार 12 जुलाई 2000 में जब सौर लपटें उठीं थी तो अंतरिक्ष में चक्कर लगाते कृत्रिम उपग्रहों में अचानक गड़बड़ी पैदा हो गई। रेडियो संदेशों के आदान-प्रदान का सिलसिला कुछ समय के लिए ठप पड़ गया। इस लपट के साथ खरबों टन सौर सामग्री भी धरती की ओर चल पड़ी। इसका धरती के मौसम और वातावरण पर प्रभाव पड़ा, परंतु किसी जान-माल की क्षति नहीं हुई। 

Saturday, January 8, 2011

कहां हैं रमन जैसे वैज्ञानिक

रमन और रामानुजम जैसे वैज्ञानिक और गणितज्ञ हमारे देश में फिर क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं? यह सवाल किसी और ने नहीं, खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेन्नई में आयोजित 98वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में पूछा है। लेकिन इसका जवाब विज्ञान कांग्रेस के आयोजकों के पास नहीं है, क्योंकि ये लोग विज्ञान को अपनी बपौती समझकर इसकी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचा रहे हैं। हाल के वर्षो में विज्ञान के क्षेत्र में इनका खास योगदान नहीं रहा है। देश में विज्ञान को नई ऊर्जा की जरूरत है। इसे उन नौकरशाहों और मठाधीशों से मुक्ति की दरकार है, जो इसके लिए धन मुहैया कराते हैं। इसलिए जब तक विज्ञान की बुनियादी शिक्षा के तौर-तरीके और अनुसंधान के अलावा देश में विज्ञान के लिए आवंटित कोष के प्रबंधन को भी दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। इसकी पहल खुद प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री को ही करनी है। विज्ञान और तकनीक के विकास के बिना आज किसी भी देश की प्रगति और खुशहाली की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसीलिए विज्ञान कांग्रेस के ताजा अधिवेशन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ठीक ही कहा है कि यदि इक्कीसवीं सदी में भारत को महाशक्ति बनना है तो यह विज्ञान और तकनीक में गुणवत्ता हासिल करने से ही संभव है, लेकिन भारत की स्थिति इस मामले में संतोषजनक नहीं है। पर यह कुछ विचित्र है कि नौकरशाही की जकड़न दूर करने की अपील खुद सरकार के मुखिया को करनी पड़ रही है। देर से ही सही, यह पहलू सरकार के स्तर पर भी विचार का विषय बनता लग रहा है तो इसके पीछे पिछले साल रसायन विज्ञान के क्षेत्र में साझा तौर पर नोबेल पुरस्कार पाने वाले भारतीय मूल के वैज्ञानिक वेंकटरमन रामकृष्णन की उस टिप्पणी का भी योगदान है, जिसमें उन्होंने कहा था कि भारतीय वैज्ञानिकों को लालफीताशाही से मुक्ति और अधिक स्वायत्तता की जरूरत है। साफ है कि देश में विज्ञान की प्रगति के लिए नए संस्थागत मूल्यों और ऐसे माहौल का विकास आवश्यक है, जिसमें नवाचार को प्रोत्साहन मिले। बने-बनाए संस्थानों के लिए तो यह जरूरी है ही, इस तकाजे को पूरी शिक्षा पद्धति से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए। किसी भी देश में विज्ञान का विकास अनिवार्य रूप से वहां की शिक्षा प्रणाली पर निर्भर करता है। हमारे यहां जमाने से पढ़ाई-लिखाई का रंग-ढंग कुछ ऐसा रहा है कि खोजने, जांचने, परखने, प्रश्न करने, प्रयोग करने और विश्लेषण करने के बजाय तथ्यों और जानकारियों को अधिक से अधिक रट कर याद करने की प्रवृत्ति जड़ जमाती गई है। यही कारण है कि हमारे यहां के शोध छात्रों के शोध कार्य भी गुणवत्ता की दृष्टि से कोई खास मायने नहीं रखते। उसमें कोई नया आइडिया नहीं होता है। विज्ञान कांग्रेस हर साल जनवरी के पहले हफ्ते में देश के किसी बड़े शहर में अपना वार्षिकोत्सव करती है। कोई भी सदस्य दस पंक्तियों का सारांश लिखकर इसमें भाग ले सकता है। कुछ विदेशी प्रतिनिधि भी बुला लिए जाते हैं। प्रचार के लिए प्रधानमंत्री से उद्घाटन करवा लिया जाता है। वास्तव में इस प्रकार की संस्था से भारतीय विज्ञान या देश को कोई लाभ नहीं हो रहा है। इसके स्वरूप को पूरी तरह से बदलना होगा। इस संस्था का कार्य देश में वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने का और देश में वैज्ञानिक जागरूकता पैदा करने तक सीमित होना चाहिए। यह एक ऐसा राष्ट्रीय मंच प्रस्तुत करे, जहां वैज्ञानिक देश की समस्याओं पर खुलकर चर्चा कर सकें। उन्हें सुलझाने में सभी योगदान दे सकें और राष्ट्र तथा वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन कर सकें। देश और समाज के विकास में विज्ञान का कितना योगदान है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। लेकिन वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास के मामले में हमारा रिकॉर्ड अच्छा नहीं है। तमाम आधारभूत सुविधाओं के बावजूद हमारे उद्योगों में 95 फीसदी तकनीक विदेशी है। हम आज भी नट-बोल्ट बनाने से लेकर पॉवर प्लांट तक के लिए टेक्नोलॉजी विदेश से लेते हैं और नई खोजों के नाम पर दुनिया को दिखाने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है। हमारे पास सीएसआईआर जैसी संस्थाएं हैं। कई स्तरीय अनुसंधान केंद्र हैं और विश्वविद्यालयों में विज्ञान के विभाग भी हैं, लेकिन सीएसआईआर का एक सर्वे बताता है कि हर साल जो करीब तीन हजार अनुसंधान पत्र तैयार होते हैं, उनमें कोई नया आइडिया नहीं होता है। वैज्ञानिकों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं की कार्यकुशलता का पैमाना वैज्ञानिक शोध पत्रों का प्रकाशन और पेटेंटों की संख्या है, लेकिन इन दोनों ही क्षेत्रों में गिरावट आई है। भारत में सील किए गए पेटेंटों की संख्या 1989-90 में 1990 से गिरकर 2006-2007 में 1881 रह गई है, जबकि रिसर्च एवं डेवलपमेंट पर खर्च हर वर्ष बढ़ता जा रहा है। पिछले 10 सालों में यह 232 प्रतिशत बढ़ गया है। अब विज्ञान मंत्रालय नए अवार्ड ऐसे वैज्ञानिकों के लिए शुरू करेगा, जो अपने देश के अंदर कार्य करना चाहते हैं। प्रधानमंत्री ने जरूरत इस बात की बताई है कि निजी क्षेत्र शोध के मामले में निवेश की लहर पैदा करें। पर जब तक देश के वैज्ञानिक संस्थानों विश्वविद्यालयों में शोध, आविष्कार का माहौल नहीं पैदा किया जाएगा, तब तक कुछ नहीं होगा। देश के कई वैज्ञानिक संस्थानों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं पर ऐसे मठाधीशों का कब्जा है, जिनका अकादमिक कार्य इस स्तर का नहीं है कि वे किसी संस्थान के निदेशक बनाए जाएं, लेकिन अपनी पहुंच के बल पर वे वैज्ञानिक अनुसंधान के मुखिया बने हुए हैं। विज्ञान की दुनिया में जोड़-घटाकर यों ही कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है। विज्ञान में कुछ करने का मतलब है कि कोई नई खोज या आविष्कार किया जाए। लेकिन जब चुके हुए लोग राजनीतिक तिकड़म और भाई-भतीजावाद से वैज्ञानिक संस्थानों, प्रयोगशालाओं एवं केंद्रों के मुखिया होंगे तो क्या होगा? शायद इन्हीं सब कारणों से वैज्ञानिक समुदाय में कुंठा बढ़ रही है, जो त्याग पत्रों और आत्महत्या के रूप में भी समय-समय पर सामने आ चुकी है। यह कोई अकारण नहीं है, जिन भारतीय वैज्ञानिकों ने नाम कमाया है, वे विदेशों में बस चुके हैं। लगभग दस लाख भारतीय वैज्ञानिक, डॉक्टर और इंजीनियर आज देश से बाहर काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वादा किया कि भारत में वैज्ञानिक शोध के लिए बेहतर माहौल बनाया जाएगा। इसके तहत विदेशों से लौटने वाले विद्वानों को प्रोत्साहन दिया जाएगा। राष्ट्रीय विज्ञान एवं इंजीनियरिंग बोर्ड (एनएसईबी) जल्द ही काम शुरू कर देगा, छात्रों को नई छात्रवृत्ति दी जाएगी। इसके साथ ही अकादमिक और अन्य शोध संस्थानों से प्रक्ति्रया को कारगर बनाने, लालफीताशाही कम करने और स्वायत्तता बढ़ाने के लिए कहा जाएगा। भारत को विश्व बाजार में अलग-थलग नहीं रहना है तो स्पष्ट रूप से हमें देश में विज्ञान और तकनीक के विकास का माहौल बनाना होगा। देश की जरूरत के हिसाब से विज्ञान और तकनीकी अनुसंधान की प्राथमिकताएं तय की जानी चाहिए। विज्ञान और तकनीकी अनुसंधान को अफसरशाही के शिकंजे से मुक्त कराकर देश के निर्माण के लिए समयबद्ध स्पष्ट कार्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)