Saturday, January 8, 2011

कहां हैं रमन जैसे वैज्ञानिक

रमन और रामानुजम जैसे वैज्ञानिक और गणितज्ञ हमारे देश में फिर क्यों नहीं पैदा हो रहे हैं? यह सवाल किसी और ने नहीं, खुद प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने चेन्नई में आयोजित 98वीं भारतीय विज्ञान कांग्रेस में पूछा है। लेकिन इसका जवाब विज्ञान कांग्रेस के आयोजकों के पास नहीं है, क्योंकि ये लोग विज्ञान को अपनी बपौती समझकर इसकी प्रतिष्ठा को चोट पहुंचा रहे हैं। हाल के वर्षो में विज्ञान के क्षेत्र में इनका खास योगदान नहीं रहा है। देश में विज्ञान को नई ऊर्जा की जरूरत है। इसे उन नौकरशाहों और मठाधीशों से मुक्ति की दरकार है, जो इसके लिए धन मुहैया कराते हैं। इसलिए जब तक विज्ञान की बुनियादी शिक्षा के तौर-तरीके और अनुसंधान के अलावा देश में विज्ञान के लिए आवंटित कोष के प्रबंधन को भी दुरुस्त किए जाने की जरूरत है। इसकी पहल खुद प्रधानमंत्री और मानव संसाधन मंत्री को ही करनी है। विज्ञान और तकनीक के विकास के बिना आज किसी भी देश की प्रगति और खुशहाली की कल्पना नहीं की जा सकती है। इसीलिए विज्ञान कांग्रेस के ताजा अधिवेशन में प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने ठीक ही कहा है कि यदि इक्कीसवीं सदी में भारत को महाशक्ति बनना है तो यह विज्ञान और तकनीक में गुणवत्ता हासिल करने से ही संभव है, लेकिन भारत की स्थिति इस मामले में संतोषजनक नहीं है। पर यह कुछ विचित्र है कि नौकरशाही की जकड़न दूर करने की अपील खुद सरकार के मुखिया को करनी पड़ रही है। देर से ही सही, यह पहलू सरकार के स्तर पर भी विचार का विषय बनता लग रहा है तो इसके पीछे पिछले साल रसायन विज्ञान के क्षेत्र में साझा तौर पर नोबेल पुरस्कार पाने वाले भारतीय मूल के वैज्ञानिक वेंकटरमन रामकृष्णन की उस टिप्पणी का भी योगदान है, जिसमें उन्होंने कहा था कि भारतीय वैज्ञानिकों को लालफीताशाही से मुक्ति और अधिक स्वायत्तता की जरूरत है। साफ है कि देश में विज्ञान की प्रगति के लिए नए संस्थागत मूल्यों और ऐसे माहौल का विकास आवश्यक है, जिसमें नवाचार को प्रोत्साहन मिले। बने-बनाए संस्थानों के लिए तो यह जरूरी है ही, इस तकाजे को पूरी शिक्षा पद्धति से जोड़कर भी देखा जाना चाहिए। किसी भी देश में विज्ञान का विकास अनिवार्य रूप से वहां की शिक्षा प्रणाली पर निर्भर करता है। हमारे यहां जमाने से पढ़ाई-लिखाई का रंग-ढंग कुछ ऐसा रहा है कि खोजने, जांचने, परखने, प्रश्न करने, प्रयोग करने और विश्लेषण करने के बजाय तथ्यों और जानकारियों को अधिक से अधिक रट कर याद करने की प्रवृत्ति जड़ जमाती गई है। यही कारण है कि हमारे यहां के शोध छात्रों के शोध कार्य भी गुणवत्ता की दृष्टि से कोई खास मायने नहीं रखते। उसमें कोई नया आइडिया नहीं होता है। विज्ञान कांग्रेस हर साल जनवरी के पहले हफ्ते में देश के किसी बड़े शहर में अपना वार्षिकोत्सव करती है। कोई भी सदस्य दस पंक्तियों का सारांश लिखकर इसमें भाग ले सकता है। कुछ विदेशी प्रतिनिधि भी बुला लिए जाते हैं। प्रचार के लिए प्रधानमंत्री से उद्घाटन करवा लिया जाता है। वास्तव में इस प्रकार की संस्था से भारतीय विज्ञान या देश को कोई लाभ नहीं हो रहा है। इसके स्वरूप को पूरी तरह से बदलना होगा। इस संस्था का कार्य देश में वैज्ञानिक और तकनीकी प्रगति का लेखा-जोखा प्रस्तुत करने का और देश में वैज्ञानिक जागरूकता पैदा करने तक सीमित होना चाहिए। यह एक ऐसा राष्ट्रीय मंच प्रस्तुत करे, जहां वैज्ञानिक देश की समस्याओं पर खुलकर चर्चा कर सकें। उन्हें सुलझाने में सभी योगदान दे सकें और राष्ट्र तथा वैज्ञानिकों का मार्गदर्शन कर सकें। देश और समाज के विकास में विज्ञान का कितना योगदान है, यह बात किसी से छिपी नहीं है। लेकिन वैज्ञानिक अनुसंधान और विकास के मामले में हमारा रिकॉर्ड अच्छा नहीं है। तमाम आधारभूत सुविधाओं के बावजूद हमारे उद्योगों में 95 फीसदी तकनीक विदेशी है। हम आज भी नट-बोल्ट बनाने से लेकर पॉवर प्लांट तक के लिए टेक्नोलॉजी विदेश से लेते हैं और नई खोजों के नाम पर दुनिया को दिखाने के लिए हमारे पास कुछ नहीं है। हमारे पास सीएसआईआर जैसी संस्थाएं हैं। कई स्तरीय अनुसंधान केंद्र हैं और विश्वविद्यालयों में विज्ञान के विभाग भी हैं, लेकिन सीएसआईआर का एक सर्वे बताता है कि हर साल जो करीब तीन हजार अनुसंधान पत्र तैयार होते हैं, उनमें कोई नया आइडिया नहीं होता है। वैज्ञानिकों तथा वैज्ञानिक संस्थाओं की कार्यकुशलता का पैमाना वैज्ञानिक शोध पत्रों का प्रकाशन और पेटेंटों की संख्या है, लेकिन इन दोनों ही क्षेत्रों में गिरावट आई है। भारत में सील किए गए पेटेंटों की संख्या 1989-90 में 1990 से गिरकर 2006-2007 में 1881 रह गई है, जबकि रिसर्च एवं डेवलपमेंट पर खर्च हर वर्ष बढ़ता जा रहा है। पिछले 10 सालों में यह 232 प्रतिशत बढ़ गया है। अब विज्ञान मंत्रालय नए अवार्ड ऐसे वैज्ञानिकों के लिए शुरू करेगा, जो अपने देश के अंदर कार्य करना चाहते हैं। प्रधानमंत्री ने जरूरत इस बात की बताई है कि निजी क्षेत्र शोध के मामले में निवेश की लहर पैदा करें। पर जब तक देश के वैज्ञानिक संस्थानों विश्वविद्यालयों में शोध, आविष्कार का माहौल नहीं पैदा किया जाएगा, तब तक कुछ नहीं होगा। देश के कई वैज्ञानिक संस्थानों और राष्ट्रीय प्रयोगशालाओं पर ऐसे मठाधीशों का कब्जा है, जिनका अकादमिक कार्य इस स्तर का नहीं है कि वे किसी संस्थान के निदेशक बनाए जाएं, लेकिन अपनी पहुंच के बल पर वे वैज्ञानिक अनुसंधान के मुखिया बने हुए हैं। विज्ञान की दुनिया में जोड़-घटाकर यों ही कुछ हासिल नहीं किया जा सकता है। विज्ञान में कुछ करने का मतलब है कि कोई नई खोज या आविष्कार किया जाए। लेकिन जब चुके हुए लोग राजनीतिक तिकड़म और भाई-भतीजावाद से वैज्ञानिक संस्थानों, प्रयोगशालाओं एवं केंद्रों के मुखिया होंगे तो क्या होगा? शायद इन्हीं सब कारणों से वैज्ञानिक समुदाय में कुंठा बढ़ रही है, जो त्याग पत्रों और आत्महत्या के रूप में भी समय-समय पर सामने आ चुकी है। यह कोई अकारण नहीं है, जिन भारतीय वैज्ञानिकों ने नाम कमाया है, वे विदेशों में बस चुके हैं। लगभग दस लाख भारतीय वैज्ञानिक, डॉक्टर और इंजीनियर आज देश से बाहर काम कर रहे हैं। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने वादा किया कि भारत में वैज्ञानिक शोध के लिए बेहतर माहौल बनाया जाएगा। इसके तहत विदेशों से लौटने वाले विद्वानों को प्रोत्साहन दिया जाएगा। राष्ट्रीय विज्ञान एवं इंजीनियरिंग बोर्ड (एनएसईबी) जल्द ही काम शुरू कर देगा, छात्रों को नई छात्रवृत्ति दी जाएगी। इसके साथ ही अकादमिक और अन्य शोध संस्थानों से प्रक्ति्रया को कारगर बनाने, लालफीताशाही कम करने और स्वायत्तता बढ़ाने के लिए कहा जाएगा। भारत को विश्व बाजार में अलग-थलग नहीं रहना है तो स्पष्ट रूप से हमें देश में विज्ञान और तकनीक के विकास का माहौल बनाना होगा। देश की जरूरत के हिसाब से विज्ञान और तकनीकी अनुसंधान की प्राथमिकताएं तय की जानी चाहिए। विज्ञान और तकनीकी अनुसंधान को अफसरशाही के शिकंजे से मुक्त कराकर देश के निर्माण के लिए समयबद्ध स्पष्ट कार्यक्रम तैयार किए जाने चाहिए। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

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