Friday, January 21, 2011

अंतरिक्ष मिशन की विफलता


अंतरिक्ष विज्ञान में भारत के प्रदर्शन पर लेखक की टिप्पणी.....
भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) की उपग्रह प्रक्षेपण के क्षेत्र में आत्मनिर्भर बनने की कोशिशों को बीते वर्ष दोहरा झटका लगा है। 25 दिसंबर को आधुनिकतम संचार उपग्रह जीसेट-5 को ले जा रहे जीएसएलवी एफ-6 रॉकेट में तकनीकी खराबी आ जाने के कारण प्रक्षेपण के तत्काल बाद यह अभियान पहले ही चरण में विफल हो गया। इस रॉकेट में रूस के क्रायोजेनिक इंजन का प्रयोग किया गया था। यह अंतरिक्ष की कक्षा में संचार उपग्रह जीसेट-5पी को स्थापित करने की उड़ान पर था। उसे 1999 में स्थापित उपग्रह इनसेट-2ई की जगह लेनी थी। अगर यह कक्षा में स्थापित हो जाता तो भारत संचार क्षेत्र अर्थात टेलीविजन, टेलीफोन, टेलीमेडिसन व पूर्वानुमान के क्षेत्र में एक नई बढ़त हासिल करके एक नए युग की शुरुआत करता। इससे पहले 15 अप्रैल, 2010 को जीएसएलवी-डी3 उस समय फेल हो गया था जब प्रक्षेपण के बाद पहले चरण में स्वदेसी क्रायोजेनिक इंजन में तकनीकी गड़बड़ी आ गई और रॉकेट बंगाल की खाड़ी में जा गिरा था। इसरो का दिसंबर मिशन यदि सफल हो गया होता तो भारत उन पांच विशिष्ट राष्ट्रों के समूह में शामिल हो गया होता जिनके पास भारी वजन वाले उपग्रह को अंतरिक्ष की कक्षा में स्थापित करने की तकनीक है। इस क्लब में अभी तक अमेरिका, फ्रांस, जापान, रूस व चीन की ही गिनती की जाती है। दरअसल, जीएसएलवी एक ऐसा मल्टीस्टेज रॉकेट है जो दो टन से अधिक वजन वाले उपग्रह को पृथ्वी से 36,000 किलोमीटर की उंचाई पर भू-स्थिर कक्षा में स्थापित कर देता है। इस भार वर्ग के उपग्रह सबसे अधिक उपयोगी होते हैं। अत्यधिक निम्न ताप उत्पन्न करने का विज्ञान क्रायोजेनिक्स कहलाता है। शून्य डिग्री सेंटीग्रेड से 253 डिग्री नीचे के तापमान को क्रायोजेनिक कहा जाता है। इस तकनीक से सबसे पहले इंजन विकसित करने वाला देश अमेरिका है, जिसने पांच दशक पहले इसका प्रयोग किया था। क्रायोजेनिक इंजन के टरबाइन व पंप विशेष प्रकार की मिश्रधातु से बनाए जाते हैं। ये ही ईंधन व ऑक्सीजन को दहन कक्ष में पहुंचाते हैं। इसरो ने भी बहुत कम तापमान को आसानी से झेल सकने वाली मिश्रधातु विकसित कर ली है। अब तक जीएसएलवी द्वारा किए गए सात प्रक्षेपणों में से कुल चार नाकाम रहे है। स्पष्ट है कि कहीं न कहीं कुछ गड़गड़ी जरूर है जिसका पता लगाना अत्यंत जरूरी हो गया है। अन्यथा अंतरिक्ष वैज्ञानिकों का मनोबल गिर जाएगा। रक्षा अध्ययन एवं विश्लेषण संस्थान के फेलो अजय लेले का कहना है कि वैज्ञानिक जल्द वापसी करेंगे और उपग्रह को फिर से प्रक्षेपित करेंगे। जीएसएलवी की विफलता जहां अंतरिक्ष प्रौद्योगिकी पर प्रभाव डालेगी, वहीं इससे मिसाइल प्रौद्यौगिकी भी प्रभावित होगी क्योंकि दोनों में एक ही तरह की तकनीक का प्रयोग किया जाता है। यदि भारत क्रायोजेनिक इंजन की तकनीक व प्रौद्यौगिकी में सफल रहता है तो उसका फायदा यह होगा कि भारत अंतरमहाद्वीपीय मिसाइल प्रौद्योगिकी में भी नए आयाम हासिल कर सकेगा। क्रायोजेनिक इंजनों पर भारतीय वैज्ञानिकों की ही नहीं वरन दुनिया के अनेक देशों की नजरें लगी हुई हैं। देश की रक्षा आवश्यकताओं को देखते हुए भारत के लिए क्रायोजेनिक इंजन का देश में निर्माण जरूरी हो गया है क्योंकि इसके बिना अंतरमहाद्वीपीय मिसाइलों का निर्माण मुश्किल होगा। भारत अंतरिक्ष मिशन के क्षेत्र में तेजी से उभरती हुई शक्ति बन रहा है। उम्मीद है कि अंतरिक्ष वैज्ञानिकों को सफलता मिलेगी। जीसेट-6, जीसेट-7, जीसेट-8, जीसेट-10 एवं जीसेट-12 के प्रक्षेपण की तैयारियां जारी है। इसरो उपग्रह केंद्र के निदेशक टी.के. एलेक्स के अनुसार इसरो की इस साल आइआई सेट, रिसोर्स सेट-2, मेगट्रापिक्स और यूथसैट उपग्रहों का प्रक्षेपण करने की योजना है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)

No comments:

Post a Comment