Monday, March 28, 2011

दिल की बिन चीरा सर्जरी


भारतीय मूल के एक डॉक्टर के नेतृत्व में ब्रिटेन के चिकित्सकों के दल ने एक नई तरह की हार्ट सर्जरी करने में सफलता हासिल की है। यह पद्धति ओपन हार्ट सर्जरी कराने में अक्षम मरीजों के लिए जीने की एक नई आस है। इस ऑपरेशन से मरीज के शरीर में एक छोटे से छेद के जरिये उसके हार्ट वॉल्व को बदला जा सकता है। और यह चमत्कार बस एक घंटे में हो जाएगा। इस पद्धति को ट्रांसकैथेटेरोएर्टिक वॉल्व इंप्लान्टेशन (टीवीएआइ) नाम दिया गया है। दल का नेतृत्व कर रहे गाय्ज एंड सेंट थॉमस हॉस्पिटल के डॉक्टर विनायक बापट के हवाले से डेली मेल ने कहा, टीवीएआइ उन मरीजों के लिए वरदान है, जो गंभीर रूप से बीमार और कमजोर होने के कारण हार्ट सर्जरी कराने में अक्षम है। यह पद्धति काफी सस्ती और सरल है, जिसमें मरीज के सीने या जांघ में एक छोटा सा चीरा लगा कर हार्ट वॉल्व को बदला जा सकता है। टीवीएआइ के इस ऑपरेशन के बाद मरीज चार से छह दिनों में घर वापस जा सकता है जबकि ओपन हार्ट सर्जरी के बाद मरीज को दस दिन तक अस्पताल में बिताना पड़ते हैं। पैपवर्थ अस्पताल में इस पद्धति से इलाज कराने वाले यूरोप के पहले व्यक्ति 54 वर्षीय जॉन क्रोनिन ने कहा, टीवीएआइ ने मेरी जान बचा दी। पहले मैं छोटे से छोटा काम करने में बुरी तरह से हांफ जाता था, लेकिन अब मैं आसानी से साइकिल भी चला पाता हूं। एरोटिक स्टेनोसिस नामक दिल के वाल्व को बंद करने वाली यह बीमारी काफी आम है। यह कई दफा बचपन से ही दिल में गतिरोध होने के बावजूद बुढ़ापे में उभरती है। हृदय के प्रमुख एरेटिक वाल्व में कैल्शियम बनने से यह उत्पन्न होती है जिससे दिल में रक्त का प्रवाह कम हो जाता है। अब तक बाईपास सर्जरी के जरिए मरीज के सीने में चीरा लगाकर उसके दिल को एक बाईपास मशीन पर सेट कर दिया जाता है और उस दौरान खराब हो चुका एरोटिक वाल्व बदल दिया जाता है। हालांकि नई पद्धति में मरीज की जांघ या दिल में एक नन्हा से छेद करके एक बहुत बारीक स्टेनलेस स्टील की पत्ती डाली जाती है। इसके सिरे पर गाय के दिल के ऊतक लगे होते हैं। इसके दूसरे सिरे पर एक गुब्बारा होता है। यह गुब्बारा एक तरह से वाल्व का काम करता है। गाय का यह ऊतक बहुत नरम होता है जो मृत गाय के दिल से तुरंत निकालकर मरीज के इस ऑपरेशन में इस्तेमाल होता है|

Saturday, March 26, 2011

एयरब्रश तकनीक


अब आपको फोटो खिंचवाने के लिए मेकअप करने की आवश्यकता नहीं है! जापानी वैज्ञानिकों ने विशेष एयरब्रश तकनीक वाला एक उच्च प्रौद्योगिकी का कैमरा विकसित करने का दावा किया है। इसकी मदद से तस्वीर में आपके दांतों तक को मोतियों जैसा सफेद बनाया जा सकता है। डेलीमेल के अनुसार पैनासोनिक कंपनी के ल्यूमिन डीएमसी-एफएक्स 77 कैमरे में ब्यूटी रीटच मोड होता है जिसकी मदद से तस्वीर में व्यक्ति के दांतों को सफेद बनाया जा सकता है, गालों पर रंगत लाई जा सकती है और चेहरे की झुर्रियों तक को कम किया जा सकता है। इस कैमरे में एयरब्रशिंग सॉफ्टवेयर, 16-मेगापिक्सल सेंसर और 3.5 इंच की एलसीडी टच स्क्रीन है। इसको बनाने वालों का दावा है कि इससे फोटो में चेहरे के मेकअप के साथ ही त्वचा को सपाट या चिकना दिखाया जा सकता है। डेली मेल की रिपोर्ट के अनुसार, आपके चेहरे की तस्वीर लेने के साथ कैमरे में मौजूद विभिन्न मोड अलग-अलग कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए, एस्थेटिक मोड त्वचा को साफ और दांतों को चमकाता है। रिपोर्ट के मुताबिक, बेहतर चेहरे को फिक्स करने के लिए तस्वीर पर विभिन्न ग्रेड इस्तेमाल किए जा सकते हैं। ज्यादा गहन स्तर तस्वीर के विवरण को ज्यादा आकर्षक बनाने की जगह भद्दा भी बना सकते हैं। शोधकर्ताओं ने बताया कि संभवत: मेकअप मोड इस कैमरे का सबसे रोचक फीचर है। इसके जरिए फाउंडेशन लगाने के लिए रंगों और टोन्स का चुनाव किया जा सकता है, ब्लश और यहां तक की लिपस्टिक को भी मनमुताबिक आकर्षक बना सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी तरह परीक्षण के बिना हालांकि यह कहना मुश्किल है कि इसके अंतिम परिणामों में वास्तविक सुधार आ सकता है या नहीं|

Wednesday, March 23, 2011

ज्वालामुखी ने डाली थी जीवन की नींव


 ज्वालामुखी विस्फोट और बिजली की कड़क भले ही दिल दहलाने वाली होती है, लेकिन इनके जरिये ही पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत हुई है। एक नए अध्ययन में यह बात सामने आई है। जिसे प्रोसीडिंग ऑफ नेशनल एकेडमी ऑफ साइंस की पत्रिका में प्रकाशित किया गया है। डेली मेल के अनुसार, सेन डियागो स्थित कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के शोधकर्ता अमेरिकी प्रोफेसर स्टेन्ले मिलर के पांचवें दशक में किए गए एक शोध में पाए गए प्री-मोर्डियल सूप गैस के नमूनों पर आधुनिक तकनीक के जरिये पुन: विश्लेषण करने के बाद इस नतीजे पर पहुंचे हैं। दल का नेतृत्व कर रहे कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के प्रोफेसर और स्टेन्ले के छात्र रहे जेफरी बाडा ने कहा, हमारे शोध में पाया गया अमीनो एसिड स्टेन्ले के नमूनों से काफी बेहतर है, ये हमारे 2008 से चल रहे अध्ययन को बढ़ाने के साथ साथ यौगिकों की विविधता को भी प्रभावित करेगा, जिसे हम किसी निश्चित गैसीय मिश्रण से प्राप्त कर सकते है। बाडा ने एक हजार गुना अधिक संवेदनशील तकनीक का इस्तेमाल कर जीवन के लिए आवश्यक अमीनो एसिड की श्रृंखला का पता लगाया है। प्रोफेसर स्टेन्ले ने 1953 में एक शोध में पृथ्वी पर जीवन के शुरुआत के पहले (लगभग 40 करोड़ साल) की वायुमंडलीय परिस्थिति बनाने की कोशिश थी। स्टेन्ले ने मिथेन, अमोनिया, वाष्प और हाइड्रोजन के मिश्रण में विद्युत तरंग के जरिये अमिनो एसीड और दूसरे कार्बनिक यौगिक बनाने में सफलता हासिल की थी। हालांकि उन्हें जीवन के वास्तविक घटक प्री-मोर्डियल सूप को हासिल करने में पूरी तरह से कामयाबी नहीं मिल पाई थी। वर्ष 1958 में अपने दूसरे शोध में स्टेन्ले ने मिश्रण में ज्वालामुखी से निकलने वाली जहरीली गैस हाइड्रोजन सल्फाइड को मिलाकर एक निर्णायक कदम उठाया था। कोलंबिया विश्वविद्यालय में किए गए उनके शोध का विश्लेषण नहीं किया गया था। हालांकि इसके दस्तावेजों को संभालकर जरूर रखा गया था। प्रोफेसर बाडा के परिणामों में कार्बनिक यौगिकों की प्रचूरता का खुलासा हुआ। इनमें 23 अमीनो एसिड भी शामिल थे। एक श्रृंखला में जुड़े करीब 20 अमीनो एसिड प्रोटीन बनाते हैं जो सभी जीवित प्राणियों के लिए कार्बनिक तंत्र और कोशिका निर्माण के लिए सामग्री उपलब्ध कराता है। अमीनो एसिड की प्रचूरता प्रोफेसर मिलर के वास्तविक प्रीमोर्डियल सूप प्रयोग और दो इसके अगले अध्ययनों में उत्पादित अमीनो एसिड से ज्यादा थी। अध्ययन के परिणाम इस बात का समर्थन करते हैं कि जीवन की उत्पत्ति में ज्वालामुखियों की अहम भूमिका थी। ज्वालामुखी विस्फोट से काफी मात्रा में हाइड्रोजन सल्फाइड और बिजली की कड़क निकलती है। जब पृथ्वी अपनी युवावस्था में थी तब इस तरह की घटनाएं बेहद आम थीं। बाडा ने यह भी पाया कि स्टेन्ले के नमूनों में मौजूद अमीनो एसिड उल्का पिंडों में मौजूद अमिनो एसिड जैसे ही हैं, जिससे संकेत मिलता है कि हाइड्रोजन सल्फाइड के निर्माण की प्रक्रिया ने पूरे सौरमंडल में जीवन के बीज बोने में मदद की होगी|

Friday, March 18, 2011

रक्त प्रवाह में बाधा नहीं बनेगा थक्का


 ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करने वाले प्रोटीन का पता लगाया है जो थ्रोम्बोसिस के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाता है। थ्रोम्बोसिस रक्त के थक्के की एक किस्म है जो हृदयाघात और स्ट्रोक का कारण बना सकती है। थ्रोम्बोसिस बनने में एलएक्सआर प्रोटीन की भूमिका को समझने में कामयाबी मिलने से इसके बेहतर इलाज का मार्ग प्रशस्त हुआ है। इससे हर साल हजारों लोगों की जान बचाई जा सकेगी। अनुसंधान दल के प्रमुख रीडिंग यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोवैस्कुलर एंड मेटाबोलिक रिसर्च के निदेशक प्रोफेसर जॉन गिबन्स का कहना है कि रक्तस्राव रोकने के लिए खून का जमना जरूरी होता है मगर रक्त प्रवाह में खून का जमना एक बीमारी है जो थ्रोम्बोसिस के नाम से जानी जाती है। इससे लोगों को हृदयाघात और स्ट्रोक भी हो सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, एलएक्सआर प्रोटीन को नियंत्रित करने वाली दवाएं बनाकर वैज्ञानिक थ्रोम्बोसिस को रोकने में कामयाब हो सकते हैं और कोलेस्ट्रॉल के स्तर को भी नियंत्रित कर सकते हैं। ब्लड जर्नल में शोध का विवरण देने वाले शोधकर्ताओं ने कहा कि इससे हृदय और सर्कुलेटरी बीमारियों से लड़ने में मदद मिल सकेगी। ब्रिटेन में इन बीमारियों के कारण हर साल तकरीबन 1.91 लाख लोग मर जाते हैं। यह पहले से ही मालूम है कि प्रोटीन रक्त कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित करता है, जिसके कारण रक्त शिराएं संकरी हो सकती हैं और हृदयाघात या स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है। मगर शोधकर्ताओं ने पाया है कि एलएक्सआर भी रक्त कोशिकाओं जिन्हें प्लेटलेट्स कहते हैं, की क्रियाविधि को रोकता है। जिससे रक्त का थक्का बन जाता है। यह स्थिति हृदयाघात को उकसा सकती है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्रयोगात्मक दवाओं के साथ चूहे में प्रोटीन पर निशाना साधा। उन्होंने पाया कि इलाज के दौरान छोटे रक्त के थक्के तो बने मगर जल्दी ही इनके निर्माण को तेजी से रोक दिया गया। जिससे रक्त शिराओं को ब्लॉक होने से बचाया जा सका और हृदयाघात होने की संभावना को भी रोक दिया|

Thursday, March 17, 2011

इस बड़े चांद से डरना नहीं


आगामी 19 मार्च को चांद कुछ बड़ा होकर पृथ्वी के नजदीक आएगा। लगभग 18 साल बाद हो रही इस खगोलीय घटना को लेकर तरह-तरह की भविष्यवानियां की जा रही हैं। कुछ लोगों ने यह कहना शुरू कर दिया है कि जापान में 11 मार्च को आए विनाशकारी भूकंप के लिए यह बड़ा चांद अथवा सुपरमून ही जिम्मेदार है। कुछ लोग सूरज की बढ़ी हुई गतिविधि से उत्पन्न सौर तूफान से इसका संबंध बता रहे हैं। अनेक वैज्ञानिकों का कहना है कि इनका जापान के भूकंप से कोई संबंध नहीं है। पूर्णिमा के दिन समुद्र में ऊंचे ज्वार उठ सकते हैं लेकिन भूकंप और सूनामी जैसी घटनाओं से इसका कोई संबंध नहीं देखा गया है। गौर करने वाली बात यह यह है कि जापान का भूकंप पूर्णिमा से 8 दिन पहले आया और उस दिन चांद अपनी कक्षा में पृथ्वी से अपने सबसे दूरवर्ती बिंदु पर था। नासा के एस्ट्रोनॉमर डेव विलियम्स का कहना है कि उस दिन चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव सामान्य से भी कम था। जहां तक चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण और ज्वारीय हलचल का संबंध है, 11 मार्च को पृथ्वी पर बहुत ही सामान्य दिन था। आखिर यह सुपरमून क्या होता है? चंद्रमा हमारे इर्द-गिर्द अंडाकार कक्षा में चक्कर काटता है। जब यह अपनी कक्षा में पृथ्वी के सबसे समीपवर्ती बिंदु के आसपास पहुंचता है तो यह सुपरमून हो जाता है। पूर्णिमा के दिन चंद्रमा एकदम अपने निकटम बिंदु पर पहुंचेगा। कुछ लोग इसे सुपरमून न कह कर एक्सट्रीम सुपरमून कह रहे हैं। इंटरनेट पर की जा रही भविष्यवाणियों के मुताबिक सुपरमून से भयंकर भूकंप, विनाशकारी तूफान आते हैं या असामान्य जलवायु परिवर्तन उत्पन्न होते हैं, लेकिन नासा वैज्ञानिक विलियम्स का कहना है कि 19 मार्च को एक बड़े और चमकीले चांद के दिखने के अलावा कोई असामान्य घटना नहीं होने वाली है। अत: सुपरमून से किसी को आतंकित होने या घबराने की जरूरत नहीं है। हां, उस दिन आप ज्यादा बड़े और ज्यादा चमकदार चांद के नजारे को कैद करना न भूलें क्योंकि ऐसी खगोलीय घटनाएं लंबे अंतराल के बाद देखने को मिलती हैं। पृथ्वी पर प्राकृतिक आपदाएं सामान्य दिनों में कहीं भी आ सकती हैं और इन्हें किसी खगोलीय घटना से जोड़ना वैज्ञानिक तौर पर सही नहीं है। 19 मार्च को चंद्रमा हालांकि 18 या 19 वर्षो में पृथ्वी के बहुत नजदीक होगा लेकिन यह नजदीकी संभवत: आधा प्रतिशत ही ज्यादा होगी। आप जब तक एकदम सही गणना नहीं करते, आप को कुछ नया नहीं लगेगा। चांद शायद पृथ्वी के कुछ हजार किलोमीटर करीब आएगा, लेकिन यदि हम चांद की कक्षा पर गौर करें तो यह कुछ भी नहीं है। यह सही है कि चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण प्रभाव से समुद्र में ज्वार उत्पन्न होते हैं। जब चांद नजदीक आता है तो ज्वार कुछ ज्यादा बड़े होते हैं लेकिन यह मानने का कोई वैज्ञानिक कारण नहीं है कि इस सुपरमून से बाढ़ आ जाएगी या कोई और विषम मौसमीय घटना हो जाएगी। जापान का भूकंप किसी सुपरमून की वजह से नहीं आया है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण यह है कि यह घटना पूर्णिमा से लगभग एक हफ्ते पहले हुई है। चांद और भूकंपीय गतिविधियों के बीच थोड़ा-बहुत संबंध होता है क्योंकि सूरज और चांद के पंक्ति में होने की वजह से सामान्य से ज्यादा ताकतवर ज्वार उत्पन्न होते हैं। इससे पृथ्वी की टेक्टोनिक प्लेट्स पर स्ट्रेस और बढ़ जाता है लेकिन जापान का भूकंप ऐसे समय आया है, जब सूरज और चांद के पंक्तिमें न होने की वजह से ज्वार की ताकत सबसे कमजोर थी। चंद्रमा भूकंप उत्पन्न नहीं करता। भूकंप के लिए सुपरमून को दोषी देना वास्तव में किसी मकान में आग के लिए एक ऐसे व्यक्तिको दोषी ठहराने जैसा है जो शहर में नहीं है। किसी खगोलीय घटना से एक सप्ताह पहले भूकंप का आना महज एक संयोग है। भूकंप, सुनामियां और प्राकृतिक विपदाएं चंद्रमा के चक्र या ज्वारों का अनुसरण नहीं करतीं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


Monday, March 14, 2011

जापानी सुनामी और सुपरमून की गुत्थी


सस्ती और भरोसमंद अंतरिक्षयात्रा के लिए बन रहे स्पेसप्लेन


वैज्ञानिकों ने जारी किए दुबारा इस्ते माल किए जा सकने वाले एकदम नए किस्म के स्पेसप्लेन के चित्र

हाल ही में नासा के शटल यान डिस्कवरी ने आखिरी बार अपनी अंतरिक्ष यात्रा पूरी की। इसी के साथ उसका 27 वर्षो का शानदार सफर समाप्त हो गया। डिस्कवरी समेत इस साल नासा इंडेवर और अटलांटिस नामक शटल यानों को भी रिटायर कर रहा है। इसी के साथ शटल यानों के एक युग का समापन हो जाएगा। उपग्रहों और वेधशालाओं (जैसे कि हबल) और अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन तक तमाम साजोसामान,अनुसंधान सामग्री और अंतरिक्षयात्रियों को ले जाने-लाने में इन शटल यानों की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नासा के बेड़े में अब केवल दो शटल यान ही सक्रिय भूमिका निभाएंगे जो कि अंतरिक्षीय गतिविधियों को जारी रखने के लिए काफी नहीं होंगे। इसी के मद्देनजर पिछले दिनों ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने दुबारा इस्तेमाल किए जा सकने वाले एकदम नए किस्म के स्पेसप्लेन के चित्रों को जारी किया है। उनका कहना है कि ये न सिर्फ शटल यानों से बेहतर होंगे बल्कि अंतरिक्ष पर्यटन को नई ऊंचाइयों पर भी पहुंचाएंगे। स्काईलोन नामक ये यान बिना पायलट के होंगे। इनका निर्माण ब्रिटेन की रिएक्शन इंजन्स कर रही है। ये यान आने वाले वर्षो में बाह्य अंतरिक्ष में सस्ती और विश्वसनीय यात्रा सुलभ कराएंगे। इंजीनियरों को उम्मीद है कि स्काईलोन कुछ ही वर्षो में डिस्कवरी की जगह ले लेगा। नए विकसित किए जा रहे अंतरिक्षयान परंपरागत शटल यानों से एकदम भिन्न और लंबे होंगे। इनकी लंबाई 90 मीटर होगी। इसका इंजन हाइड़ोजन ईधन से संचालित होगा जिसका डिजाइन कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर एलन बांड ने किया है। शुरुआत में इसका मुख्य उद्देश्य उपग्रहों को अंतरिक्ष में लांच करना था लेकिन अब इसे इस तरह से डिजाइन किया जा रहा है कि यह 30 से 40 यात्रियों को भी साथ ले जाएगा। इसके साथ ही यह अंतरिक्ष पर्यटन में नए युग के द्वार खोल देगा। कंपनी के विशेषज्ञों के मुताबिक इसका निर्माण अभी शुरुआती दौर में है और सामान्य ब्रिटिश नागरिकों को इसकी यात्रा करने के लिए अभी 10 साल और इंतजार करना होगा। रिएक्शन इंजन्स लिमिटेड के प्रोग्राम डायरेक्टर के अनुसार, इसका इंजन हवा के साथ हाइड्रोजन जलाकर शुरू होता है और द्रव ऑक्सीजन के साथ हाइड्रोजन जलाने के साथ बंद होता है, जैसा कि शटल इंजन में होता है। यही वह वजह है जो नासा तथा यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के यानों को पीछे छोड़ देता है क्योंकि उन्हें कक्षा में आगे बढ़ने के लिए डिस्पोजेबल और महंगे ईधन की जरूरत होती है। स्काईलोन के निर्माण पर करीब छह अरब पौंड की लागत आएगी।





Tuesday, March 8, 2011

हार्टअटैक का पता पहले ही


जल्द ही उन लोगों की पहचान संभव हो सकेगी जिन्हें भविष्य में दिल का दौरा पड़ सकता है। भारतीय मूल के एक वैज्ञानिक के नेतृत्व में अनुसंधानकर्ताओं ने दर्जन भर से अधिक ऐसे जीनों की पहचान की है जिनका संबंध दिल की बीमारी से है। ब्रिटिश हार्ट फाउंडेशन के प्रोफेसर निलेश समानी की अगुवाई में एक अंतरराष्ट्रीय दल ने दिल के दौरे की आशंका वाले लोगों के डीएनए में खामी का पता लगाने के लिए 140,000 लोगों की जीन संरचना का अध्ययन किया। इस दौरान वैज्ञानिकों ने हृदय की बीमारी से संबंध रखने वाले 13 नए जीनों की पहचान की। यह संख्या अब तक हृदयाघात से जुड़े ज्ञात जीनों की संख्या से दोगुनी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि उनकी यह खोज हृदयाघात का नया इलाज खोजने में मददगार हो सकती है और उन लोगों का पता लगाने में भी कारगर हो सकती है जिन्हें भविष्य में दिल के दौरे की आशंका हो। प्रोफेसर समानी का कहना है कि चिह्नित किए गए ज्यादातर जीनों के बारे में यह जानकारी नहीं थी कि इनका संबंध कोरोनरी धमनी की समस्या से है जो कि हृदयाघात का मुख्य कारण है। डेली टेलीग्राफ में उनके हवाले से कहा गया है, अब हम अध्ययन करेंगे कि ये जीन कैसे काम करते हैं। निश्चित रूप से तब हम पता लगा सकेंगे कि यह बीमारी कैसे होती है और इसका इलाज कैसे किया जा सकता है। इस अध्ययन में अमेरिका, यूरोप, आइलैंड, ब्रिटेन और कनाडा के 167 चिकित्सक और वैज्ञानिक शामिल थे। उन्होंने लोगों के जनेटिक कोड का अध्ययन किया ताकि वह डीएनए में उन विभिन्नताओं का पता लगा सकें जो कोरोनरी धमनी से संबंधित दिल की बीमारी वाले लोगों में पाई जाती हैं। ब्रिटिश हार्ट फाउंडेशन के प्रोफेसर पीटर वीसबर्ग ने कहा कि जितने बड़े पैमाने पर जनेटिक अध्ययन होता गया हमने उन जीनों की पहचान शुरू कर दी जो दिल की बीमारी के विकास में काफी बड़ी या छोटी भूमिका निभाते हैं। उन्होंने बताया कि हर नए जीन की पहचान के साथ हम कार्डियोवेस्कुलर बीमारी के विकास की जैविक प्रणालियों और उसके नए संभावित इलाज को समझने के करीब आते गए। रोचक बात यह रही कि 13 नए जीन क्षेत्रों में सिर्फ तीन ही कोरोनरी बीमारी से संबंधित थे। ये खतरे के आम कारकों जैसे कोलेस्ट्रॉल के उच्च्च स्तर, रक्तचाप, मधुमेह, धूम्रपान और मोटापे से जुड़े हुए थे। यह अध्ययन नेचर जनेटिक्स जर्नल के ताजे अंक में प्रकाशित किया गया है|

Monday, March 7, 2011

जब बचेंगी सिर्फ महिलाएं


नासा के वैज्ञानिक ने किया दूसरे ग्रह का प्राणी खोजने का दावा


पृथ्वी के दूरस्थ इलाकों में गिरे उल्कापिंडों में मिले छोटे-से जीवाश्मीकृत बैक्टीरिया के 10 वर्षो के अध्ययन के बाद किया गया खु लासा दुनिया के 5000 वैज्ञानिकों और 100 विशेषज्ञों को इस शोध का विश्लेषण करने के लिए किया गया है आमंत्रित
लंदन। नासा के एक वैज्ञानिक का दावा है कि उसने परग्रही जीवन यानी एलियन का पता लगा लिया है और इस खोज से मालूम किया जा सकता है कि पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत कैसे हुई। इस तरह का असाधारण दावा किया है डॉ. र्रिचड हूवर ने जो कि नासा के मार्शल स्पेस फ्लाइट सेंटर में एस्ट्रोबायोलॉजिस्ट हैं। डॉ. र्रिचड हूवर ने यह खुलासा पृथ्वी के दूरस्थ इलाकों में गिरे उल्कापिंडों में मिले छोटे-से जीवाश्मीकृत बैक्टीरिया के 10 वर्षो के अध्ययन के बाद किया। डॉ.हूवर ने चुनौती देते हुए घोषणा की है कि दुनिया का कोई भी बैज्ञानिक इसकी जांच करे और उसे गलत साबित करके दिखाए। उन्होंने बताया कि अंटार्कटिका, साइबेरिया और अलास्का की यात्रा के दौरान उन्होंने अत्यंत दुर्लभ उल्कापिंड ‘सीआई1 काबरेनेशियस कोन्ड्राइट्स’ का अध्ययन किया। समझा जाता है कि पृथ्वी पर ऐसे केवल नौ उल्कापिंड ही हैं। उन्होंने कहा ‘ऐसा संकेत मिलता है कि जीवन केवल पृथ्वी तक ही सीमित नहीं है।’
शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी से जीवाश्म की जांच-परख करने वाले डॉ. हूवर ने कहा, ‘मैंने अब तक बैक्टीरिया के तरह-तरह के जीवाश्म देखे हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जो पृथ्वी पर पाए जाने वाली प्रजातियों से बेहद मिलते- जुलते हैं लेकिन कुछ एकदम अलग, यानी जो इस दुनिया के हैं ही नहीं।’ डॉ. हूबर का का कहना है कि ब्रह्मांड में जीवन के बीज उल्कापिंडों के जरिए फैलते होंगे और पृथ्वी पर जीवन किसी क्षुद्रग्रह के टकराने के दौरान किसी बैक्टीरिया के माध्यम से ही आया होगा। उन्होंने ‘फॉक्स न्यूज’ से कहा ‘कुछ ऐसे बैक्टीरिया भी हैं जो बिल्कुल अलग हैं और उनकी तरह नहीं दिखते जिन्हें हम पहचान सकते हैं। मैंने उन्हें कई अन्य विशेषज्ञों को दिखाया और उनकी राय भी ऐसी ही थी।’ डॉ. हूवर प्रत्येक उल्कापिंड के पत्थर संग्रह कर उन्हें प्रयोगशाला में ले जाते हैं और वहां तोड़ कर उनके जीवाश्मों का अध्ययन करते हैं। इसी सिलसिले में स्कैनिंग करते हुए उन्होंने एक जैविक अवशेष पाया जिसमें नाइट्रोजन नहीं थी। अब तक माना जाता है कि सभी जीवित प्राणियों में नाइट्रोजन पाई जाती है। यह शोध कॉस्मोलॉजी जर्नल के मार्च संस्करण में प्रकाशित हुआ है जिसने दुनिया के 5000 वैज्ञानिकों और 100 विशेषज्ञों को इस शोध का विश्लेषण करने के लिए आमंत्रित किया है।

चीन 2030 तक चांद पर भेजेगा इंसान


चीन वर्ष 2030 तक चांद पर मनुष्य को भेजने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए वैज्ञानिकों का प्रशिक्षण शुरू हो गया है। चीन ने पहली बार दो महिला अंतरिक्ष यात्रियों को भी प्रशिक्षण के लिए नियुक्त किया है। चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक ने इसे शांतिपूर्ण बताया है, न कि धमकीभरा। समाचार-पत्र चाइना डेली ने चाइना अकेडमी ऑफ स्पेस टेक्नोलॉजी में अंतरिक्ष खोज से जुड़े मुख्य वैज्ञानिक ये पीजियान के हवाले से लिखा है कि अमेरिका और रूस के मुकाबले चीन का अंतरिक्ष तकनीक अब भी बहुत पीछे है। चांद पर खोज के लिए चीन ने तीन चरणों में अपनी योजना बनाई है। पहले चरण के तहत पिछले साल अक्टूबर में चेंज-2 नामक उपग्रह छोड़ा गया था। दूसरे चरण के तहत 2013 में चेंज-3 चांद पर उतरेगा, जबकि अंतिम चरण के तहत 2017 में चांद के चट्टानों के नमूने धरती पर भेजे जाएंगे। चाइना मैन्ड स्पेस इंजीनियरिंग ऑफिस के प्रवक्ता ने बताया कि चीन 2011 में तियांगोंग-1 नामक अंतरिक्ष मॉड्यूल भी लांच करेगा। 2012 में दो इंसानी अंतरिक्ष यान तियांगोंग-1 के साथ रवाना होंगे। अधिकारियों के अनुसार अंतरिक्ष स्टेशन 10 साल के लिए होगा और इस दौरान दो या तीन अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा इसकी देखरेख की जाएगी।


जीन तय करते हैं दिमाग तेज होगा या मंद


आपका मस्तिष्क कितनी अच्छी तरह काम करता है वह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आपके परिवार की अनुवांशिक संरचना कैसी है। मेलबर्न विश्वविद्यालय की अगुवाई में वैज्ञानिकों के अंतरराष्ट्रीय दल ने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है। दल ने अध्ययन के दौरान पाया कि हर व्यक्ति के मस्तिष्क की प्रभावक्षमता उसकी संरचना पर आधारित होती है। जनरल ऑफ न्यूरोसाइंस में यह अध्ययन प्रकाशित हुआ है। अध्ययन के प्रमुख लेखक डॉ. एलेक्स फोर्निटो ने कहा कि इस निष्कर्ष का इस समझ पर गहरा असर पड़ेगा कि क्यों कुछ लोग अन्य की तुलना में कुछ खास काम करने में ज्यादा समर्थ होते हैं। इसके अलावा यह समझने में भी मदद मिलेगी कि मानसिक और कुछ न्यूरोलॉजिकल बीमारियों का अनुवांशिक आधार क्या है। उन्होंने कहा कि सालों से वैज्ञानिकों के लिए यह बात रहस्य बनी हुई है कि कैसे मस्तिष्क का नेटवर्क इतना व्यवस्थित बना। मस्तिष्क खरबों तंतुओं द्वारा आपस में जुड़ीं अरबों तंत्रिकीय कोशिकाओं का एक असाधारण जटिल जाल है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस अध्ययन से यह पता करने में मदद मिलेगी कि कौन सा ऐसा खास जीन है जो संज्ञानात्मक क्षमताओं की विभिन्नताओं और सीजोफ्रेनिया व अल्जाइमर जैसे मानसिक रोगों के जोखिम को समझने में महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि यद्यपि जीन मस्तिष्क के कार्यो में मुख्य भूमिका अदा करते हैं मगर मानसिक बीमारियों और अन्य दिमागी विकारों के मामलों में जब चीजें गलत जा रही हों तो माहौल और अन्य कारक भी अपना योगदान देते हैं। क्वींसलैंड, कैंब्रिज और यूके विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों के दल ने 38 समान और 26 असमान जुड़वाओं के मस्तिष्क के स्कैन की तुलना की।


Friday, March 4, 2011

सूर्य के लापता धब्बों की वजह का पता चला


दुनिया भर के सौर वैज्ञानिक वर्ष 2008-09 के दौरान सूर्य के धब्बों के लापता होने से चकित थे ‘सूर्य के भीतर मौजूद प्लाज्मा की धाराओं ने सूर्य के धब्बों के निर्माण में हस्तक्षेप किया और सौर न्यूनता को बढ़ाया।
भारत के शीर्ष वैज्ञानिक संगठन और नासा द्वारा प्रायोजित एक संयुक्त अनुसंधान और कोलकाता के एक वैज्ञानिक ने सूर्य के 11 वर्षीय चक्र के दौरान सौर गतिविधियों में कमी आने की पहेली को हल कर लिया है। दुनिया भर के सौर वैज्ञानिक वर्ष 2008-09 के दौरान सूर्य के धब्बों के लापता होने से चकित थे। पिछले 100 सालों के दौरान यह सर्वाधिक न्यूनतम सौर गतिविधि थी। न्यूनतम सौर गतिविधि के दौरान सूर्य के धब्बों और सौर अंधड़ों की आवृत्ति काफी कम हो जाती है। नासा के एक बयान के अनुसार, सौर गतिविधियों की इस न्यूनता का असर अंतरिक्ष यात्रा की सुरक्षा और हमारे ग्रह द्वारा इकट्ठा किए जाने वाले कक्षीय कचरे की मात्रा पर पड़ता है। भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान, कोलकाता के प्रमुख लेखक दिव्येन्दु नंदी ने कहा, ‘सूर्य के भीतर मौजूद प्लाज्मा की धाराओं ने सूर्य के धब्बों के निर्माण में हस्तक्षेप किया और सौर न्यूनता को बढ़ाया।’
नासा के ‘लिविंग विद अ स्टार’ कार्यक्र म और भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा वित्तपोषित इस अनुसंधान से पता चला है कि इस सौर न्यूनता की अवधि में सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र कमजोर हो जाता है जिसके कारण रिकार्ड संख्या में अंतरिक्षीय किरणों सौर पण्राली में प्रवेश कर जाती हैं। इसके चलते अंतरिक्ष की यात्रा जोखिमपूर्ण हो जाती है। इसमें कहा गया है, इसके साथ ही पराबैंगनी किरणों में कमी के कारण पृथ्वी की ऊपरी सतह ठंडी होकर ध्वस्त हो गई। नासा के विज्ञान मिशन निदेशालय में हिलियोफिजिक्स डिवीजन के निदेशक र्रिचड फिशर ने कहा, ‘इस अनुसंधान से यह प्रदर्शित होता है कि हिलियोफिजिक्स सिस्टम आब्जव्रेटरी मिशन के प्रेक्षण किस प्रकार नए सिद्धांतों और विकसित तकनीकों को प्रोत्साहित करते हैं।’ सौर चक्र या सौर चुंबकीय गतिविधि चक्र सूर्य से निकलने वाली प्रदीप्ति है जिसका अनुभव पृथ्वी पर होता है।


सूरज बता देगा बारिश होगी या धरती डोलेगी


बाहरी अंतरिक्ष से आया पृथ्वी पर जीवन !


वैज्ञानिकों ने अंटार्कटिका में 1995 में पाए गए उल्कापिंड में नाइट्रोजन के निर्माण तत्वका पता लगाया है। इससे एक बार इस सिद्धांत की पुष्टि हुई है कि पृथ्वी पर जीवन बाहरी अंतरिक्ष से आया है। परीक्षणों ने यह प्रदर्शित किया है कि इस चट्टान में अमोनिया है जो आंशिक तौर पर नाइट्रोजन से बनी है और इसमें डीएनए और प्रोटीन है जो जीवन के निर्माण तत्व हैं। द डेली मेल के अनुसार, इससे इस सिद्धांत की पुष्टि हुई है कि पृथ्वी पर जीव किसी अन्य स्थान से आया था। कुछ वैज्ञानिकों का मानना है कि प्रारंभिक जीवन के विकास के लिए आवश्यक आधारभूत परमाणुओं को मुहैया करा पाने में पृथ्वी सक्षम नहीं थी। हाल के प्रयोगों में एरिजोना विश्वविद्यालय के अनुसंधानियों के दल ने उल्का से निकाली गई चार ग्राम चट्टान पर प्रयोग किए। इस चट्टान का नाम नुनाताक्स 95229 था। यह उल्का अंटार्कटिका में 1995 में पाई गई थी। वैज्ञानिकों ने पाया कि उल्का में बड़ी मात्रा में हाइड्रोकार्बन थे और साथ ही अमोनिया भी काफी मात्रा में मौजूद थी।



तो सस्ते दामों पर खूब मिलेगा डीजल!


वैज्ञानिकों की मानें तो इसे दुनिया में पेट्रो पदार्थो की कमी के संभावित हल के तौर पर देखा जा सकता है। उन्होंने अनुवांशिक रूप से परिवर्तित (जीएम) ऐसे जीव (ऑर्गेनिज्म) के विकास का दावा किया है जिसे सूर्य की रोशनी, जल और कार्बन डाईऑक्साइड के संपर्क में लाया जाता है तो वह डीजल जैसा ईधन स्रावित करता है। इस आधार पर बॉयोटेक्नोलॉजी कंपनी जोउल अनलिमेटेड ने दावा किया है कि वे बेहद कम दामों पर डीजल और इथेनॉल का उत्पादन कर सकते हैं। कैंब्रिज स्थित कंपनी ने अपनी अभूतपूर्व खोज को ईधन की स्वतंत्रता के तौर पर बयान किया है। डेली मेल की खबर के अनुसार, कंपनी का कहना है कि अब वह दुनिया के सबसे सस्ते जीवाश्म ईधन के बराबर कीमत वाले कृत्रिम डीजल को बना सकते हैं। जोउल ने यह भी दावा किया कि उनकी तकनीक से ऐसे ईधन को भी बनाया जा सकता है जिसका इस्तेमाल जेट इंजन में हो सके। जोउल के मुख्य कार्यकारी बिल सिम्स ने कहा कि हमने कुछ शानदार दावे किए हैं, इन सभी पर हमारा विश्वास है, सभी को हम मान्यता दे चुके हैं। ये सभी निवेशकों को दिखाए जा चुके हैं। उन्होंने कहा कि अगर हम आधे भी सही हैं तो यह दुनिया की सबसे बड़ी इंडस्ट्री में क्रांति ला देगा, जो तेल और गैस इंडस्ट्री है। अगर हम पूरे सही हुए तो ऐसा कोई कारण नहीं है जो यह तकनीक दुनिया को नहीं बदल सकती। कंपनी के अनुसार, जीव को सूर्य की रोशनी और कार्बन डाईऑक्साइड लेने वाला बनाया गया है, जिसके बाद यह ईथेनॉल या हाइड्रोकार्बन स्रावित करता है। यह डीजल जैस विभिन्न ईधनों का मूल तत्व होता है। हालांकि इन दावों को लेकर कई संशय भी जता चुके हैं। यूएस नेशनल रिन्युएबल एनर्जी लेबोरेटरी के वैज्ञानिक फिलिप पिनकॉस ने कहा कि जोउल तकनीक रोचक है मगर सिद्ध नहीं की गई है और उनकी कार्यक्षमता के दावों को कुछ दिक्कतें कमजोर बनाती हैं क्योंकि वे स्रावित ईधन को सिर्फ एकत्रित कर सकते हैं। विस्कोंसिन मेडिसन यूनिवर्सिटी में बायोएनर्जी रिसर्च सेंटर के निदेशक टिमोथी डोनोहु का कहना है कि जोउल को बड़े पैमाने पर अपनी तकनीक का प्रदर्शन करना चाहिए। उन्होंने कहा कि शायद यह काम कर जाए मगर सिर्फ एक वाक्य इसके बीच में अवरोध है, क्या यह काम करेगा? उन्होंने कहा कि इस बारे में कई अच्छे प्रयोग सामने आए हैं मगर बड़े पैमाने पर वह असफल हो गए। जोउल की स्थापना 2007 में हुए थी। कुछ सालों में इसने काफी गोपनीय तरीके से काम किया है। हाल ही में उसने खुलासा किया था कि वह क्या कर रहा है, इसमें सायनोबैक्टिरियम को पेटेंट कराना भी शामिल था। सौर ऊर्जा से ईधन के निर्माण का काम कई दशकों से चल रहा है, जैसे मक्का से ईथेनॉल बनाना या कवक से ईधन निकालना|