Monday, February 28, 2011

अध्ययन की बलि नहीं चढ़ेंगे जीव-जंतु


वैज्ञानिकों ने मलेरिया के अध्ययन के लिए एक नया तरीका खोजा है जिसमें परीक्षणों के लिए जीव-जंतुओं की जरूरत नहीं होगी। सिडनी विश्वविद्यालय में प्रो. जार्ज ग्रेउ की अगुवाई में एक टीम ने अध्ययन के लिए एक ऐसा मॉडल निकाला है जिसमें पारंपरिक तरीके की जरूरत नहीं होगी। पारंपरिक तरीके में मलेरिया परजीवी के लिए चूहों को टीका लगाया जाता रहा है। जीव-जंतुओं पर परीक्षण करने के स्थान पर प्रो. गे्रउ की अगुवाई में टीम ने मानव कोशिकाओं का इस्तेमाल किया। अमेरिका और यूरोप में भी अध्ययनकर्ता उनकी प्रणाली का इस्तेमाल कर रहे हैं। कई अन्य बीमारियों के अध्ययन में भी इस प्रणाली का इस्तेमाल किया जा रहा है। सेरीब्रल मलेरिया के एक खास पहलू, विशेषतौर पर मस्तिष्क की रक्त कोशिकाओं में क्षति, पर ध्यान केंद्रित करते हुए प्रो. ग्रेउ जानवरों के बिना परीक्षण में सक्षम हो सके और मंजूरी के बाद मानव कोशिकाओं का इस्तेमाल कर सके। अमेरिका और यूरोप में शोधकर्ताओं ने उनके तरीके को हाथों-हाथ लिया है और मैनिनजाइटिस, वायरल एंसिफेलाइटिस समेत दिमाग की अन्य बीमारियों पर नए तरीके से अध्ययन करना शुरू कर दिया है। लेबोरेटरी एनिमल सर्विस के निदेशक डॉ. मैल्कॉम फ्रांस ने कहा कि यूनिवर्सिटी में जानवरों के बगैर परीक्षण तरीकों के मजबूत इतिहास के प्रति यह एक प्रतिक्रिया है। उन्होंने कहा कि शोध में बगैर जानवरों के विकल्प वाले तरीकों पर विचार की महत्ता अत्यंत महत्वपूर्ण है|

Saturday, February 26, 2011

अब आया दुनिया का सबसे छोटा कंप्यूटर


वैज्ञानिकों ने दुनिया का सबसे छोटा कंप्यूटर बनाने का दावा किया है। इसका आकार मात्र एक वर्ग मिलीमीटर है। यानि इतना छोटा कि आंख की पुतली में समा जाए। यूनिवर्सिटी ऑफ मिशिगन के वैज्ञानिकों द्वारा विकसित इस छोटे से यंत्र को आंख में प्रत्यारोपित करके ग्लूकोमा (मोतियाबिंद) का इलाज किया जा सकता है। फिलहाल इसे कोई नाम नहीं दिया गया है। ब्रिटिश अखबार द डेली मेल के मुताबिक, यह आकार में भले ही छोटा है लेकिन इसमें मेमोरी, प्रेशर सेंसर और एक बैटरी सहित कई उपकरण मौजूद हैं। शोधकर्ताओं के मुताबिक इसमें सोलर सेल और एंटिना समेत वायरलैस रेडियो भी है, जो डाटा को उससे जुड़े उपकरणों को हस्तांतरित कर सकता है। हालांकि इसे अभी बाजार में आने में काफी वक्त लगेगा। इसके निर्माता प्रोफेसर डेनिस सिल्वेस्टर, डेविड ब्लाऊ और डेविड वेंटलोफ का दावा है कि इस यंत्र के रेडियो के लिए उपयुक्त फ्रीक्वेंसी ढूंढ़ने की कोई जरूरत नहीं है। इसलिए इसे वायरलैस कंप्यूटर नेटवर्क से जोड़ा जा सकता है। वैज्ञानिकों का दावा है कि ऐसी इकाइयों का एक नेटवर्क भविष्य में प्रदूषण का पता लगाने और निगरानी करने के काम भी आएगा। प्रोफेसर सिल्वरस्टेन ने कहा, अगली चुनौती इससे भी छोटा उपकरण विकसित करने की है जिससे हमारे शरीर, पर्यावरण और इमारतों की निगरानी की जा सके। उन्होंने कहा, चूंकि यह बेहद छोटा है इसलिए एक वेफर (सेमीकंडक्टर की बेहद पतली परत) पर सैकड़ों निर्मित किए जा सकते हैं। प्रति व्यक्ति ये हजारों बनाई जा सकती हैं और इसकी यह प्रति बढ़ोतरी सेमीकंडक्टर उद्योग के विकास को जबरदस्त प्रगति दे|

Friday, February 25, 2011

जलवायु परिवर्तन को समझने में मिलेगी मदद


चंद्रमा पर मिली रहने लायक जगह


भारतीय वैज्ञानिकों ने एक ऐसी खोज की है जो आने वाले समय में अंतरिक्ष अभियानों के लिए मील का पत्थर साबित हो सकती है। उन्होंने चांद पर इंसान के लिए एक सुरक्षित जगह का पता लगाने में कामयाबी हासिल की है। भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) के वैज्ञानिकों ने चांद पर ऐसी जगह की खोज की है जहां पर अंतरिक्ष यात्री अपने अभियानों के लिए सुरक्षित बेस स्थापित कर सकते हैं। स्पेस एप्लीकेशन सेंटर (एसएसी) में वैज्ञानिकों ने चंद्रयान-1 के मैपिंग कैमरे और हाइपर स्पेक्ट्रल इमेजर (एचवाईएसआइ) पेयलोड से मिले आंकड़ों का इस्तेमाल कर यह जगह खोजी है। यह एक सामानांतर लावा गुफा है जो 1.2 किलोमीटर लंबी और सतह में धंसी हुई है। यह गुफा चंद्रमा के समीपवर्ती इलाके में भूमध्य रेखा के ऊपर स्थित है। इसमें बड़ी संख्या में अंतरिक्ष यात्रियों और वैज्ञानिक उपकरणों को रखा जा सकता है। यह जगह इन्हें चंद्रमा के प्रतिकूल वातावरण से बचाए रखेगी। करंट साइंस में इस अध्ययन के निष्कर्षो को प्रकाशित किया गया है। अहमदाबाद में एसएसी के ए.एस. आर्य की अगुवाई वाले वैज्ञानिक दल ने बताया कि ऐसी लावा गुफा भविष्य में मानव के चांद पर रहने के लिए संभावित जगह सिद्ध हो सकती है। यहां से वैज्ञानिक अपने अभियानों और वैज्ञानिक खोजों को जारी रख सकते हैं। उन्होंने बताया कि चंद्रमा के हानिकारक रेडिएशन, छोटे उल्का पिंडों की टक्कर, विपरीत तापमान और धूल के तूफानों वाले भयानक वातावरण से यह जगह बचा सकती है। वैज्ञानिकों ने कहा कि चंद्रमा पर आगे की खोज करने के लिहाज से इंसान के वहां रहने का एक स्थायी ठिकाना खोजना बेहद महत्वपूर्ण बात है। उन्होंने कहा कि लावा गुफा प्राकृतिक माहौल उपलब्ध कराती है। यहां का तापमान करीब-करीब एक जैसा माइनस 20 डिग्री सेल्सियस बना रहता है। जबकि चंद्रमा पर अन्य इलाकों में दिन-रात के चक्र में तापमान अधिकतम 130 डिग्री सेल्सियस से न्यूनतम माइनस 180 डिग्री सेल्सियस के बीच रहता है। वैज्ञानिकों ने बताया कि लावा गुफा के वातावरण में धूल भी नहीं पहुंची है। वैज्ञानिकों ने बताया कि गुफा की बनावट भी यहां रहने वालों का बचाव करेगी क्योंकि छह मीटर गहराई के बाद भी यहां रेडिएशन के कोई संकेत नहीं मिले। उन्होंने बताया कि एक मीटर से भी कम गहराई में सोलर कणों की क्रियाशीलता के कारण रेडिएशन के कोई संकेत नहीं दिखे। प्राकृतिक या किसी घटना से प्रेरित रेडियोधर्मिता लावा गुफा में संपर्क पर कोई उल्लेखनीय भूमिका अदा नहीं करती है। उन्होंने कहा कि लावा गुफा सिर्फ सुरक्षित प्राकृतिक जगह ही नहीं हैं बल्कि चंद्रमा पर बेस बनाने के लिए एक बना बनाया निर्माण भी है।

Wednesday, February 23, 2011

सोलर तूफान ला सकता है कट्रीना का कोप


सूर्य अपनी सबसे सक्रिय अवस्था में प्रवेश करने वाला है। ऐसा होते ही धरती पर सोलर तूफान आएगा, भयंकर तबाही मचेगी। ग्लोबल कट्रीना तूफान पूरी दुनिया को अपनी चपेट में ले लेगा। खगोल विज्ञानियों ने सम्पूर्ण मानवजाति के लिए यह चेतावनी जारी की है। उनकी मानें तो पूरी दूनिया पर अंतरिक्ष तूफान का खतरा मंडरा रहा है। जो कि सभी उपग्रहों को नष्ट कर पूरी संचार व्यवस्था को ठप कर देगा, धरती पर अंधेरा छा जाएगा। अरबों पौंड के नुकसान की आशंका जताई गई है। ब्रिटिश अखबार डेली मेल के अनुसार, सूर्य में हो रहे शक्तिशाली विस्फोट के चलते धरती पर पहुंचने वाले खतरनाक विकरण और आवेशित कण समूची संचार व्यवस्था, हवाई यातायात को तबाह कर देंगे। इस तबाही का असर कई महीनों रहेगा। वैज्ञानिकों का कहना है कि सूर्य अपने 11 साल के प्राकृतिक चक्र की सबसे सक्रिय अवस्था में कदम रखने वाला है और यह अवस्था 2013 तक आने की आशंका है। अंतरिक्ष विज्ञानियों ने वाशिंगटन में अमेरिकन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस की सालाना बैठक में इस विषय पर विस्तृत चर्चा की है।
ऐसा हुआ है पहले भी : 1972 में भी सोलर तूफान आया था। जिसने अमेरिका के इलिनॉयस में टेलीफोन संचार व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा की थी। कनाडा के क्यूबेक में 1989 में इस वजह से पूरे शहर की बिजली गुल हो गई थी। इन दोनों ही घटनाओं का असर सीमित स्थान पर दिखा था। मगर 2013 में आने वाले सोलर तूफान पूरी दुनिया को चपेट में ले सकता है।


आगबबूला होता सूरज


14 फरवरी को सूरज ने अपना रौद्र रूप दिखलाया और उसका असर पृथ्वी पर भी हुआ। सूरज पर हुए विस्फोट ने चीन में रेडियो संचार में बाधा डाली और पूरी दुनिया की नींद उड़ा दी। करीब चार साल में यह सबसे शक्तिशाली विस्फोट था। विशेषज्ञों का कहना है कि 14 फरवरी की रात को सूरज पर उमड़ने वाला ज्वालाओं का तूफान ताकतवर होने के बावजूद पिछले अनेक विस्फोटों की तुलना में महज एक बच्चा था, लेकिन इसने पृथ्वीवासियों को यह अहसास जरूर करा दिया कि सूरज का गुस्सा कितना तीव्र हो सकता है। सूरज पर उठने वाला प्रचंड तूफान पूरी दुनिया में तबाही मचा सकता है। इससे संचार प्रणालियां अस्त-व्यस्त हो सकती हैं, उपग्रहों और अंतरिक्षयात्रियों के लिए खतरा उत्पन्न हो सकता है। इस वक्त सूरज पर गतिविधि का चक्र तीव्र हो रहा है। अगले कुछ वर्षो में वहां और बड़े विस्फोट हो सकते हैं। सूरज अपने 11-वर्षीय मौसमी चक्र में शांत समय बिताने के बाद पिछले साल ही सक्रिय हुआ था। पिछले कुछ महीनों के दौरान उसकी गतिविधि अचानक तेज हो गई है। विशेषज्ञों के मुताबिक सूरज पर तुरंत किसी बड़े तूफान की संभावना नहीं है, लेकिन यह बात गारंटी के साथ नहीं कही जा सकती। कभी भी कुछ हो सकता है। चूंकि हमारा आधुनिक समाज अपने अस्तित्व के लिए हाई-टेक उपकरणों पर निर्भर होता जा रहा है, ऐसे में सौर तूफान हमारे लिए ज्यादा परेशानी पैदा कर सकते हैं। ये तूफान आधुनिक उपकरणों की कार्य प्रणालियों को प्रभावित कर सकते हैं। आखिर ये सौर तूफान अथवा सौर लपटें क्या हैं? दरअसल सूरज पर उठने वाला तूफान तीव्र रेडिएशन-विस्फोट हैं, जिसमें फोटोन की तरंगें निकलती हैं। ये तरंगें पृथ्वी की ओर बढ़ती हैं। सौर-ज्वालाओं की ताकत का अंदाजा लगाने के लिए उन्हें तीन श्रेणियों में बांटा जाता है। ये हैं क्लास सी, क्लास एम और क्लास एक्स। क्लास एक्स की लपटों को सबसे ताकतवर माना जाता है। 14 फरवरी को निकली सौर ज्वाला को इस पैमाने पर क्लास एक्स 2.2 के रूप में अंकित किया गया। दूसरे सौर तूफानों को कोरोनल मास इजेक्शंस (सीएमई) कहा जाता है। ये सूरज की सतह से निकने वाले प्लाज्मा और मेग्नेटिक फील्ड के बादल होते हैं, जो बड़ी मात्रा में कणों को बाहर फेंकते हैं। सौर लपटों और सीएमई तूफान के पीछे बुनियादी कारण एक ही है और वह है सूरज के बाहरी वायुमंडल में चुंबकीय क्षेत्र में अवरोध। ये दोनों घटनाएं पृथ्वी पर जीवन को प्रभावित कर सकती हैं। मसलन, बड़ी-बड़ी ज्वालाएं उपग्रहों की कार्यप्रणाली में हस्तक्षेप कर सकती हैं, जीपीएस और हाई-फ्रीक्वेंसी रेडियो संचार में रुकावट उत्पन्न कर सकती हैं। यह स्थिति कुछ मिनटों से लेकर कुछ घंटों तक बनी रह सकती है। ये प्रभाव तुरंत महसूस किए जाते हैं क्योंकि प्रकाश को सूरज से पृथ्वी पर पहुंचने में सिर्फ आठ मिनट लगते हैं। सबसे ज्यादा नुकसान सीएमई से होता है। इसे पृथ्वी पर पहुंचने में तीन दिन लगते हैं। लेकिन एक बार यहां पहुंचने के बाद यह पृथ्वी के चुंबकीय क्षेत्र से टकरा कर भू-चुंबकीय तूफान उत्पन्न करता है। ऐसा तूफान पूरी दुनिया के विद्युत और दूरसंचार तंत्र पर दीर्घकालिक प्रभाव डाल सकता है। पिछले साल नासा ने अंतरिक्ष की गंभीर मौसमी घटनाओं पर पूर्व चेतावनी देने के उद्देश्य से सोलर शील्ड प्रोजेक्ट लांच किया था। अमेरिका की नेशनल एकेडमी ऑफ साइंसेस की एक ताजा रिपोर्ट के अनुसार भयंकर सौर तूफान से धरती के दूरसंचार संपर्क के पंगु होने और दूसरी गड़बडि़यों से उत्पन्न होने वाला प्रारंभिक नुकसान करीब 2 खरब डालर का होगा। इस नुकसान की क्षतिपूर्ति में दस साल लग जाएंगे। सूरज की गतिविधि का चक्र 11 साल चलता है। इस समय यह गतिविधि ताकतवर हो रही है। सूरज पर नजर रखने वाले विशेषज्ञों को 2013 या 2014 में सौर गतिविधि के चरम पर पहुंचने की उम्मीद है। अत: भविष्य में और अधिक सौर लपटें और सीएमई तूफान पृथ्वी की ओर अग्रसर हो सकते हैं। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं)


Tuesday, February 22, 2011

फ्लू को मात देगा सूंघने वाला स्प्रे


वैज्ञानिकों ने नाक से दिया जाने वाला एक ऐसा स्प्रे तैयार करने का दावा किया है, जो वैश्विक स्तर पर फ्लू की रोकथाम के लिए टीके का काम करेगा। जर्नल ऑफ जनरल वायरोलॉजी की रिपोर्ट के मुताबिक यूनिवर्सिटी ऑफ एडिलाइट के शोधकर्ता चूहों पर इस वैश्विक फ्लू रोधी टीके का सफलतापूर्वक परीक्षण कर चुके हैं। प्रमुख शोधकर्ता डॉ. डेरेन मिलर ने कहा, मौजूदा समय में स्वास्थ्य अधिकारी यह बताते हैं कि आने वाले समय में फ्लू का क्या रूप होगा और उसके अनुसार ही वैक्सीन में संशोधन कर दिया जाता है। इसमें काफी समय लगता है। साथ ही काफी पैसा और श्रम खर्च होता है। इन सब नकारात्मक बातों को नए वैश्विक टीके के जरिए नियंत्रित किया जा सकता है। मिलर ने बताया कि यह एक साधारण और पूरी तरह कृत्रिम रूप से बनाया गया वैश्विक टीका है। यानी इसे किसी इंफ्लुएंजा वायरस के जरिए विकसित नहीं किया गया है। साथ ही हर साल इसमें संशोधन करने की जरूरत भी नहीं होगी। उन्होंने कहा कि इस वैक्सीन से स्वास्थ्य केंद्रों को लाभ होगा। इससे फ्लू को फैलने से रोकने में मदद मिलेगी। उनके मुताबिक इस टीके से कई मरीजों में एलर्जी के खतरे को भी कम किया जा सकता है। शोध के लिए वैज्ञानिकों ने चूहे की नाक में कुछ सुनिश्चित पेप्टाइड्स (अमीनो अम्लों की छोटी श्रृंखलाएं, कई पेप्टाइड मिलकर प्रोटीन बनाते हैं) को प्रविष्ठ कराया। इन पेप्टाइड्स ने फ्लू वायरस, जो सभी इंफ्लुएंजा ए और बी वायरसों में मौजूद रहता है, की प्रतिरक्षी प्रतिक्रिया को जागृत कर दिया जिसने वायरस को प्रभावशाली तरीके से निष्कि्रय बना दिया। इस परीक्षण वैक्सीन ने चूहे को सामान्य वायरस (एच3एन2) के खिलाफ सौ फीसदी सुरक्षा प्रदान की, जबकि अत्यधिक शक्तिशाली वायरस (एच5एन1, बर्ड फ्लू) के खिलाफ 20 फीसदी सुरक्षा दी। डॉ. मिलर ने बताया कि यह बेहद सकारात्मक प्रतिक्रिया है। इससे भविष्य में प्रयोगशाला और क्लिनिकल परीक्षणों दोनों के लिए बढि़या संभावनाएं नजर आ रही हैं। मिलर के अनुसार, अब जबकि वैश्विक वैक्सीन इंजेक्शन के जरिए दी जाती हैं ऐसे में नाक का स्प्रे कई मायनों में लाभदायक है। उन्होंने कहा कि इससे त्वचा को भेदना नहीं होगा और सुई से डरने वाले लोग नए तरीको को अपनाना ही पसंद करेंगे। स्प्रे वायरस के प्रवेश द्वार की प्राकृतिक जगह पर स्थानीय प्रतिरक्षी प्रतिक्रियाओं को जागृत कर देता है। उन्होंने बताया कि यह वैक्सीन कई मरीजों में एलर्जी के खतरे को भी कम कर देगी क्योंकि मौजूदा फ्लू वैक्सीन अंडों में विकसित की जाती हैं।

Monday, February 21, 2011

भूकंप की सटीक जानकारी देगा उपग्रह


भूकंप की होगी सटीक भविष्यवाणी


दुनिया भर में हर साल भूकंप से मरने वाले हजारों लोगों को बचाने की दिशा में रूस और ब्रिटेन के वैज्ञानिकों की कोशिशें परवान चढ़ती नजर आ रही हैं। वैज्ञानिकों के एक संयुक्त दल की मानें तो एक नई परियोजना ट्विनसेट के तहत छोड़े जाने वाले दो उपग्रह भूकंप आने से पहले ही उसके सही स्थान और समय की जानकारी मुहैया कराएंगे। दोनों देशों के वैज्ञानिकों ने इस परियोजना पर काम करने के लिए मॉस्को में समझौते पर हस्ताक्षर किए। ब्रिटिश अखबार द इंडिपेंडेंट के अनुसार, एक उपग्रह पुराने टीवी के आकार का होगा, जबकि दूसरा जूते के डिब्बे से भी छोटा होगा। दोनों उपग्रह रूस के सुदूर पूर्व स्थित कमचाटका प्रायद्वीप और आइसलैंड जैसे भूकंप और ज्वालामुखी से प्रभावित क्षेत्रों की निगरानी करेंगे। इनसे मिली जानकारी और जमीनी स्तर की जानकारियों का अध्ययन करने के बाद वैज्ञानिक भूकंप के आने से पहले चेतावनी जारी करेंगे। परियोजना को शुरू करने वाले यूनिवर्सिटी कॉलेज ऑफ लंदन के प्रोफेसर ऐलेन स्मिथ ने कहा, भूकंप से पहले धरती में उत्पन्न होने वाले तनाव से जो विद्युतचुंबकीय तरंगे निकलती हैं उन्हें वायुमंडल के ऊपरी हिस्से में प्राप्त किया जा सकता है। इसी वजह से उपग्रह इन्हीं तरंगों का ग्रहण कर सकते हैं। उन्होंने कहा कि हम यह पता लगाने की कोशिश में हैं कि ये तरंगे अन्य सभी चीजों से भिन्न कैसे होती हैं। परियोजना में शामिल एक रूसी वैज्ञानिक प्रोफेसर विटैली चिमिरेव ने कहा कि इस शोध में प्रगति की संभावनाएं काफी ज्यादा हैं। इस परियोजना की सफलता से धरती की सुरक्षा के साथ ही रूस और ब्रिटेन में विज्ञान को नई ऊंचाई मिलेगी। उन्होंने कहा, कल्पना कीजिए कि पिछले साल हैती में आए विनाशकारी भूकंप के बारे में अगर पहले से पता चल जाता तो कितनी जानें बचाई जा सकती थी। मगर बाद में ही इसका विशलेषण होता रहा। इस परियोजना का पहला उपग्रह 2015 में छोड़े जाने की योजना है। चिमिरेव ने कहा कि यह परियोजना ऐसी तरंगों को पढ़ने की दिशा में एक बड़ा कदम हो सकती है। उन्होंने कहा कि आइलैंड में ज्वालामुखी फटने से पूरे हफ्ते परिवहन मार्ग बाधित रहे। अगर हम इसका पहले ही पता लगा लेते तब! यह परियोजना मानव और अर्थव्यवस्था के लिए बहुत बड़ा फायदा साबित हो सकती है। परियोजना दल के एक अन्य सदस्य प्रोफेसर पीटर सेमोंड्स ने बताया कि उपग्रह बेहद छोटे होंगे और तकनीक अपेक्षाकृत कम खर्चीली। उन्होंने कहा कि आप इन्हें अपनी हथेली पर भी रख सकते हैं। अगर यह परियोजना प्रगति करती है, जैसा हम चाहते हैं, हम ऐसे कई और उपग्रह भेज सकेंगे ताकि कवरेज को बढ़ाया जा सके। उन्होंने कहा कि अब वह समय दूर नहीं है जब आपके भूकंपों की भविष्यवाणियां कर सकेंगे। प्रोफेसर चिमिरेव कहते हैं कि लोग आपको वैज्ञानिक की बजाए धूर्त कह सकते हैं। मगर विज्ञान तेजी से बढ़ रहा है और मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि जल्द या थोड़ी देर से हम भूकंप की सटीक भविष्यवाणियां करने में सक्षम होंगे।

Sunday, February 20, 2011

प्लूटो का एक साल धरती के 248 सालों के बराबर


सौर मंडल का नौवां और सबसे अंतिम ग्रह प्लूटो एक अद्भुत ग्रह है जिसका एक साल धरती के 248 सालों के बराबर होता है। यह आकार में काफी छोटा है। सूर्य से लगभग छह अरब किलोमीटर दूर स्थित इस ग्रह की खोज 18 फरवरी 1930 को खगोल विज्ञानी क्लाइड थॉमबाग द्वारा की गई थी। वैज्ञानिकों का कहना है कि 1930 से पहले सौर मंडल में ऐसे किसी ग्रह की कल्पना तो थी, लेकिन उसकी पुष्टि के पर्याप्त आधार नहीं थे। महर्षि दयानंद विश्वविद्यालय से संबद्ध भौतिक शास्त्री आरवी कौशल के अनुसार प्लूटो सौर मंडल का एक अहम हिस्सा है और इसका एक साल धरती के 248 सालों के बराबर होता है। प्रत्येक ग्रह पर दिन, महीने और वर्ष की अवधि अलग-अलग होती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि सूर्य का भ्रमण करने की हर ग्रह की गति अलग-अलग है। कौशल ने कहा कि थॉमबाग ने विज्ञान को प्लूटो के रूप में अनोखा तोहफा दिया और सौरमंडल में एक अतिरिक्त ग्रह का अस्तित्व स्थापित कर दिया। भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर जगदीश सिंह के अनुसार हाल के दिनों में प्लूटो में कुछ बदलाव देखने को मिल रहे हैं जिनका दुनिया भर के वैज्ञानिक अध्ययन कर रहे हैं। प्लूटो, बुध, शुक्र, धरती और मंगल छोटे ग्रहों की श्रेणी में आते हैं, जबकि बृहस्पति, शनि, यूरेनस और नेपच्यून बड़े ग्रहों की श्रेणी में शुमार हैं। सिंह के अनुसार प्लूटो का नाम अंधकार के रोमन देवता के नाम पर आधारित है। क्योंकि इस ग्रह पर हमेशा अंधकार छाया रहता है इसलिए इसका नाम अंधकार के देवता प्लूटो के नाम पर रख दिया गया।


Saturday, February 19, 2011

कैंसर को नष्ट करने आई नई एंटीबॉडी


कैंसर जैसी लाइलाज बीमारी का तोड़ निकालने के लिए वैज्ञानिक तेजी से प्रयास कर रहे हैं। इसी दिशा में भारत और ऑस्ट्रेलिया के वैज्ञानिकों ने मिलकर एक एंटीबॉडी तैयार की है और उससे कैंसर के उपचार में सफलता हासिल करने का दावा किया है। उनका कहना है कि इस एंटीबॉडी के इस्तेमाल से शरीर में एक मेडिकल स्मार्ट बम बनाया जा सकता है जो कैंसर की कोशिकाओं को नष्ट कर सकता है। वर्तमान में उपलब्ध कैंसर के इलाज ट्यूमर की कोशिकाओं को तो नष्ट कर देते हैं, लेकिन वो कैंसर की नई स्टेम सेल को नहीं मार पाते। मगर यह एंटीबॉडी ऐसा कर पाने में सक्षम है। ऑस्ट्रेलिया के डीकिन विश्वविद्यालय और बेंगलूर के भारतीय विज्ञान संस्थान ने बारवन हेल्थ्स एंड्रयू लव कैंसर सेंटर और कैम जेनेक्स फार्मास्यूटिकल्स के साथ मिलकर इस अंतरराष्ट्रीय परियोजना पर काम किया है। वैज्ञानिकों की टीम ने आरएनए एप्टामर प्रोटीन की एक विशेष रसायनिक एंटीबॉडी तैयार की है, जो कैंसर की कोशिकाओं के खिलाफ गाइडेड मिसाइल की तरह काम करती है। यह अध्ययन कैंसर साइंस जर्नल में प्रकाशित हुई है। इस एंटीबॉडी में दवा को ले जाकर सीधे कैंसर कोशिकाओं पर हमला करने की क्षमता होती है। इसके अलावा यह कैंसर से प्रभावित भाग को पहचानने में भी काफी उपयोगी है। डीकिन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर डूआन ने कहा, तमाम नई तकनीक और चिकित्सकीय सुविधाएं आने के बावजूद कैंसर से मरने वालों की संख्या में कमी नहीं आ रही है। इसकी वजह कैंसर की सही समय से पहचान व इलाज नहीं हो पाना है। क्या है एंटीबॉडी? एंटीबॉडी रक्त में पाया जाने वाला एक प्रकार का प्रोटीन है। जो मेरूंदडीय प्राणियों के रक्त या अन्य शारीरिक तरल पदार्थो में पाए जाते हैं। इनका प्रयोग प्रतिरक्षा प्रणाली द्वारा बैक्टीरिया और वायरस (विषाणु) जैसे बाह्य पदार्थो को पहचानने तथा उन्हें बेअसर करने के लिए किया जाता है।

औरतों से अधिक बातूनी हैं मर्द


यह जानकर बहुत लोग चौंक जाएंगे लेकिन सच यही है। औरतों के मुकाबले मर्द कहीं अधिक बातूनी होते हैं। एक ताजा अध्ययन में यह तथ्य सामने आया है। गप्पे मारने और वक्त-बेवक्त अधिक बात पुरुष और महिलाओं में से कौन अधिक करता है, तो अब हकीकत यही है कि मर्द ज्यादा बात करते हैं। औरतें अब तक बेवजह इस मामले में बदनाम रही हैं। युवक हों या वृद्ध वह बातों में महिलाओं से आगे हैं। लेकिन वह बहुत रोचक बातें करना नहीं जानते। मतलब बात करने की अवधि अधिक जरूर है लेकिन उनकी बातों में वह रस नहीं है जो महिलाओं की बातचीत में होता है। किसी जिरह को जीतना, चुटीली और खट्टी-मीठी बातों में अभी भी महिलाएं ही बाजी मारती हैं। अध्ययन में पाया गया है कि पुरुषों की बातचीत में शब्द अधिक होते हैं लेकिन महिलाओं के मुकाबले अपनी बात कहने का अंदाज वह बेहतरीन नहीं बना पाते। उनकी बातों के भाव उतने सटीक तरीके से प्रकट नहीं होते जितना महिलाएं कर पाती हैं। रीसर्च में यह भी पाया गया है कि जब गंभीर मुद्दों पर बातचीत हो रही हो तो पुरुष और महिलाओं की सोच-समझ का दायरा बराबर का होता है और शब्द भी एक समान ही इस्तेमाल किए जाते हैं। खासकर करंट अफेयर्स में दोनों में ही यह क्षमता समान रूप से है। अध्ययन में एक और मजेदार बात सामने आई है कि जब पुरुष अपने मित्रों के बीच हों तो उनकी बातचीत में शब्दों की भरमार होती है। पर फिर भी वह अपने आप को बहुत अच्छी तरह से जाहिर नहीं कर पाते। दूसरी ओर मित्रों के बीच महिलाएं भी अपने आप को ठीक से जाहिर नहीं कर पातीं। पर इसकी वजह यह है कि उनकी शब्दावली सीमित होती है। इस अध्ययन से एक मिथ और टूटा है कि महिलाओं की तरह पुरुष भी तारीफ किए जाने पर झेंप जाते हैं और जवाब देने में उन्हें काफी मशक्कत करनी पड़ती है। इस अध्ययन ने महिलाओं के माथे से बातूनी होने का ठप्पा हटाया दिया है और अब यह मुहर पुरुषों पर लग गई है। चूंकि पुरुष ही ज्यादातर बस बात करने के लिए ही बात करते हैं। डेली एक्सप्रेस ने मेनचेस्टर यूनिवर्सिटी के मनोविज्ञान विभाग के प्रमुख प्रोफेसर जेफरी बीटल के हवाले से यह रिपोर्ट प्रकाशित की है।