Friday, April 29, 2011

एलियन्स आ गए तो क्या होगा!


सप्ताहभर पहले सर्बिया में एक मृत एलियन्स के मिलने की खबर ने एक बार फिर इस बहस को जिंदा कर दिया है कि क्या धरती पर एलियन्स का कोई अस्तित्व है? कुछ समय पहले ब्रीफ हिस्ट्री ऑफ टाइम के विख्यात लेखक और एस्ट्रो-फिजिक्स से जुड़े विषयों पर विश्व के सर्वाधिक प्रामाणिक और अधिकार-संपन्न वैज्ञानिक, विशेषज्ञ, विश्लेषक और चिंतक स्टीफन हाकिंग ने वैज्ञानिक समुदाय को झकझोर दिया था। उनके बयान ने वैश्विक स्तर पर एक आशंका भरी बहस को भी जन्म दिया था- क्या धरती एलियन्स के निशाने पर आ सकती है?

वर्ष 1984 में मेट्रो गोल्डविन मेयर ने पीटर हायम्स के निर्देशन में अन्य ग्रहों के प्राणियों यानी एलियन्स पर आधारित एक फिल्म बनाई थी। नाम था- 2010 : द इयर वी मेक कॉन्टेक्ट। फिल्म में बृहस्पति के चंद्रमा यूरोपा के निवासियों और इंसानों के बीच हुए पहले संपर्क की कल्पना की गई थी, जो वर्ष 2010 में घटित होना था। लेकिन यह तो फिल्मी कहानी हुई। व्यावहारिक दुनिया में लौटकर देखें तो अंतरिक्ष विज्ञान के क्षेत्र में 2010 प्रसिद्ध वैज्ञानिक स्टीफन हाकिंग की इस चेतावनी के लिए याद किया जाएगा कि अन्य ग्रहों के प्राणियों से संपर्क के लिए अधिक लालायित होने की आवश्यकता नहीं है। इंसानों के लिए इसके विनाशकारी नतीजे भी हो सकते हैं। संयोगवश, 2010 के अंतिम दृश्यों में भी एलियन्स धरती की ओर लगातार यही संदेश प्रसारित करते हैं कि तुम बाकी ग्रहों पर भले ही नियंत्रण कर लो, मगर यूरोपा पर आने की कोशिश भूलकर भी मत करना। स्टीफन हाकिंग भी कुछ-कुछ यही कहते हैं। फर्क यह है कि वे सिर्फ यूरोपा के संदर्भ में नहीं, बल्कि सौर मंडलीय और परा-सौर मंडलीय दुनिया के निवासियों से सुरक्षित दूरी बनाए रखने की सलाह दे रहे हैं। इसके बावजूद कि दूसरे ग्रहों के प्राणियों की खोज अंतरिक्ष विज्ञान के सबसे रोमांचक पहलुओं में से एक है और हम इंसानों के लिए सर्वाधिक कौतूहल वाले विषयों में शामिल है।

पुनर्जन्म और स्वर्ग-नरक की परिकल्पनाएं भी कुछ-कुछ ऐसे ही विषय हैं। अंतरिक्ष विज्ञान एक ऐसा क्षेत्र है, जिसके अन्वेषण के लिए प्रतिद्वंद्वी राष्ट्र भी साथ आने में संकोच नहीं करते। नासा, सेटी और अन्य अंतरिक्ष संस्थानों ने एलियन्स तक संदेश पहुंचाने या उनसे दोतरफा रेडियो संपर्क कायम करने के लिए कई महत्वाकांक्षी प्रयास किए हैं। चंद्रमा से लेकर मंगल, शुक्र, बृहस्पति, शनि, बुध, यूरेनस, वरुण और यम यानी प्लूटो तक के अन्वेषण की अलग-अलग किस्म की परियोजनाएं इंसानों ने लांच की हैं। फिर हाल के वषरे में तो हमारी निगाहें सौर मंडल से बाहर स्थित सितारों तक भी जा पहुंची हैं। तो क्या जैसा कि स्टीफन हाकिंग संकेत दे चुके हैं, क्या यह सब करके हम अपने ही विनाश को न्यौता दे रहे हैं? स्टीफन हाकिंग की बातों को गंभीरता से न लेने का कोई कारण नहीं है। उन्होंने वैज्ञानिक समुदाय को झकझोर दिया है। उनके बयान ने वैश्विक स्तर पर एक आशंका भरी बहस को भी जन्म दिया है- क्या धरती एलियन्स के निशाने पर आ सकती है? क्या किसी अंतरग्रहीय युद्ध में इंसानी प्रजाति और इस शानदार ग्रह का अस्तित्व खतरे में पड़ सकता है? यदि हां, तो ऐसा कब तक संभव है? और, क्या हम इसे टाल सकते हैं?

डिस्कवरी टीवी चैनल पर प्रसारित किए जाने वाले कार्यक्रमों की बेहद चर्चित श्रंखला में स्टीफन हाकिंग ने मोटे तौर पर दो बातें कही हैं- पहली, अन्य ग्रहों पर जीवन की संभावना वास्तविक है और दूसरी, हमें अन्य ग्रहों से मेलजोल के प्रयास सुखद परिणाम ही लेकर आएं, यह जरूरी नहीं। बहुत संभव है कि इस संपर्क का परिणाम लगभग वैसा ही घातक हो, जैसा क्रिस्टोफर कोलंबस के आने का नई दुनिया यानी अमेरिका के मूल निवासियों पर हुआ था। उनका मानना है कि जो एलियन्स धरती पर आएंगे, वे असल में अपने ग्रहों पर संसाधनों का इतना अधिक दोहन कर चुके होंगे कि वे ग्रह प्राणियों के रहने योग्य नहीं रह गए होंगे। वे विशाल अंतरिक्ष यानों में ही रहने को मजबूर होंगे और रास्ते में जो भी ग्रह आएगा, उसके संसाधनों को निशाना बनाएंगे। उनका बर्ताव दोस्ताना ही हो, यह जरूरी नहीं है। हाकिंग की चेतावनी के कई कोण हैं। वह अनेक प्रश्न और प्रतिप्रश्न भी पैदा करती है। हालांकि अभी तक एलियन्स के साथ इंसानों का सीधा संपर्क नहीं हुआ है, लेकिन अन्य ग्रहों पर जीवन है, यह बात अनेक वैज्ञानिकों ने मानी है। अधिकांशत: इस मान्यता का आधार वही दलील है, जो हाकिंग ने दी है। अंतरिक्ष में आकाश गंगाओं, सौरमंडलों, ग्रहों आदि की संख्या का कोई अंत नहीं है। खुद हमारी आकाशगंगा में ही अरबों तारे हैं। ऐसे में यह धारणा स्वाभाविक रूप से पैदा होती है कि धरती ऐसा अकेला ग्रह नहीं होगा, जहां पर किसी न किसी रूप में जीवन मौजूद है। कार्ल सैगन अन्य ग्रहों पर जीवन को बैक्टीरिया के रूप में देखते हैं। कुछ अन्य वैज्ञानिक मानते हैं कि परग्रहीय प्राणी रेंगकर चलने वाले हो सकते हैं, लेकिन इस अनंत ब्रह्मांड में हमारे जैसे या हमसे बेहतर प्राणियों के अस्तित्व की संभावना या आशंका भी उतनी ही मजबूत है।

हमारे अपने सौर मंडल में शुक्र, मंगल, बृहस्पति और शनि के चंद्रमाओं (यूरोपा, टाइटन आदि) पर जीवन की थोड़ी-बहुत संभावना जाहिर की जाती रही है। डॉ. फ्रेंक ड्रैक के बहुचर्चित समीकरण के आधार पर देखा जाए तो हमारी आकाशगंगा में ही कम से कम दस हजार ग्रहों पर जीवन के अनुकूल परिस्थितियां मौजूद हैं। उधर, हबल अंतरिक्षीय दूरबीन के अन्वेषण के आधार पर निष्कर्ष निकाला गया है कि ब्रह्मांड में करीब 125 अरब आकाशगंगाएं हैं। 

Thursday, April 28, 2011

जुगाली से जलेंगे चूल्हे, दौड़ेंगी गाडि़यां!


अगर यह अनुसंधान व्यावहारिक पैमानों पर खरा उतरा तो देश के डेयरी फार्मो के लाखों मवेशी दूध और मांस के उत्पादन के साथ ईधन बनाने में भी मददगार साबित होंगे। इससे वातावरण की हिफाजत होगी, सो अलग। इंदौर जिले के शासकीय पशु चिकित्सा महाविद्यालय से स्नातकोत्तर स्तर पर अनुसंधान कर रहे जुल्फकार उल हक ने मवेशियों की जुगाली के दौरान निकलने वाली मीथेन गैस को संग्रहित करके इसे तरल ईधन में बदलने की परियोजना का खाका खींचा है। उन्होंने बुधवार को बताया, मैं जिस डेयरी फार्म की परिकल्पना को आकार देने की कोशिश में जुटा हूं, उसमें मवेशियों को आहार दिए जाने के बाद उनके मुंह पर विशेष नलियां लगा दी जाएंगी। हक ने बताया कि ये नलियां पशुओं की जुगाली और डकार के दौरान निकलने वाली मीथेन गैस को जमा करेगी, जिसे एक चैंबर में पहुंचाकर तरल ईधन में बदल दिया जाएगा। मीथेन उन ग्रीनहाउस गैसों में शामिल है, जिनकी ग्लोबल वॉर्मिग बढ़ाने में अहम भूमिका मानी जाती है। हक ने कहा, तरल मीथेन को ईधन के रूप में वाहनों और खाना पकाने में इस्तेमाल किया जा सकता है। चूंकि देश में मवेशियों की आबादी दुनिया के दूसरे मुल्कों के मुकाबले बेहद ज्यादा है। लिहाजा, इस तरह की परियोजना से ग्लोबल वॉर्मिग पर नियंत्रण में भी मदद मिलेगी। हक ने बताया कि एक अनुमान है कि जुगाली करने वाला मवेशी आमतौर पर दिन भर में 250 से 500 लीटर मीथेन वातावरण में छोड़ सकता है। लिहाजा इस बारे में अंतरराष्ट्रीय वैज्ञानिक समुदाय खासा चिंतित है। उन्होंने बताया कि उनकी परिकल्पना को इंडियन एसोसिएशन फॉर द एडवांसमेंट ऑफ वेटरनरी रिसर्च (आइएएवीआर) के जयपुर में फरवरी के दौरान राष्ट्रीय अधिवेशन में सर्वश्रेष्ठ नवाचारी विचार के रूप में पुरस्कृत किया जा चुका है। युवा अनुसंधानकर्ता इन दिनों अपनी परिकल्पना को परिष्कृत और व्यावहारिक रूप देने में जुटा है|

Saturday, April 23, 2011

अंतरिक्ष में लंबी छलांग


पीएसएलवी के सफल प्रक्षेपण पर लेखक  की टिप्पणी
20 अप्रैल, 2011 का दिन अंतरिक्ष अभियान के क्षेत्र में एक ऐतिहासिक दिन बन गया है। इस दिन धु्रवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान यानी पीएसएलवी अपने 18वें अभियान पर श्रीहरिकोटा प्रक्षेपण स्थल के अंतरिक्ष केंद्र से प्रक्षेपित हुआ और उड़ान भरने के करीब 18 मिनट बाद 822 किलोमीटर की ऊंचाई पर स्थित कक्षा में तीन उपग्रहों रिसोर्ससैट-2, यूथसैट और सिंगापुर के एम्ससैट को स्थापित करने में सफल रहा। पीएसएलवी सी-16 द्वारा स्थापित किए उपग्रहों में से इसरो द्वारा निर्मित आधुनिक दूर संवेदी उपग्रह रिसोर्ससैट-2 का वजन 1206 किलोग्राम है। इस भारतीय उपग्रह से प्राकृतिक संसाधनों के अध्ययन तथा प्रबंधन में काफी मदद मिलेगी। यह अंतरिक्ष में रिसोर्ससैट-1 की जगह लेगा जिसे सन 2003 में स्थापित किया गया था। इसकी जीवनकाल पांच साल का होगा। रिसोर्ससैट-2 28 अप्रैल से ही तस्वीरें भेजनी शुरू कर देगा। पीएसएलवी की मदद से स्थापित दूसरा उपग्रह यूथसैट 92 किलो का है। इस उपग्रह को भारत व रूस ने संयुक्त रूप से विकसित किया है। इससे तारों एवं मौसम के अध्ययन में मदद मिलेगी। तीसरा सिंगापुर का एक्ससैट उपग्रह 106 किलोग्राम का है। इसे सिंगापुर की नेनयांग टेक्नोलॉजिकल यूनिवर्सिटी ने बनाया है। इसका उपयोग मानचित्रीकरण के लिए किया जाएगा। रिसोर्ससैट-2 की लागत 140 करोड़ रुपये है। इसमें दो सॉलिड स्टेट रिकॉर्डर हैं। प्रत्येक रिकॉर्डर की तस्वीरें कैद करने की क्षमता 200 जीबी है। इसमें एक ही प्लेटफॉर्म पर उच्च, मध्यम तथा हाई रिजोल्यूशन कैमरे लगे हैं। ये अत्याधुनिक कैमरे फसलों की स्थिति के आकलन में सहायता प्रदान करेंगे। इसके अलावा कैमरे वनों की कटाई की स्थिति, झीलों व जलाशयों का जल स्तर, हिमालय में पिघलने वाली बर्फ तथा पोतों के लिए निगरानी प्रणाली का कार्य करेंगे। पोतों की निगरानी प्रणाली के लिए इसमें कनाडा के कॉमडेव द्वारा निर्मित स्वचालित पहचान प्रणाली लगी है जिससे पोतों के स्थान व उनकी गति जैसी जानकारियां हासिल होंगी। रिसोर्ससैट-2 के कक्षा में स्थापित होने के बाद इसरो के उपग्रह केंद्र निदेशक टीके एलेक्स ने कहा कि इसे सही कक्षा में स्थापित किया गया है। इसके सौर पैनल सुचारू रूप से काम कर रहे हैं। उन्होंने यह भी बताया कि इसके चित्रों का उपयोग 15 देश करेंगे जो इसे वैश्विक मिशन का दर्जा देता है। इसके साथ ही कृषि, जल संसाधन, ग्रामीण विकास, जैविक संसाधन और भौगोलिक संभावनाओं से जुड़े विशिष्ट क्षेत्रों में निगरानी भी हो सकेगी। इसरो के अध्यक्ष के. राधाकृष्णन ने मिशन को भव्य सफलता की संज्ञा देते हुए कहा कि इस सफलता से पीएसएलवी की विश्वसनीयता को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहचान मिली है। पिछले वर्ष जीएसएलवी की दो लगातार असफलताओं के बाद यह सफलता वैज्ञानिकों का मनोबल बढ़ाने वाली है। 25 सितंबर, 2010 को जीएसएलवी मिशन तब असफल हो गया था जब वह प्रक्षेपण के 47 सेकेंड बाद ही आग की लपटों में घिरकर नष्ट हो गया। 15 अप्रैल, 2010 को भी जीएसएलवी डी-3 विफल हो गया था। इन दोनों विफलताओं से भारत के अंतरिक्ष कार्यक्रम को तगड़ा झटका लगा था। पीएसएलवी श्रृंखला का पहला अभियान 20 सितंबर, 1993 को शुरू हुआ था जो कि असफल रहा था, लेकिन उसके बाद के सभी 17 अभियान सफल रहे हैं। अब तक अनेक देशों ने उपग्रह बनाए हैं, लेकिन मात्र 10 देश ही उन्हें लांच व्हीकल के जरिये कक्षा में स्थापित करने में सफलता हासिल कर पाए हैं। ऐसे देशों में रूस, अमेरिका, यूक्रेन, फ्रांस, जापान, चीन, ब्रिटेन, भारत, इजरायल व ईरान हैं। निश्चित रूप से भारत की यह सफलता गौरवान्वित करने वाली है। (लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

Friday, April 22, 2011

अंतरिक्ष में तिरंगे की शान


भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान केंद्र, इसरो ने एक बार फिर शान से अंतरिक्ष में देश का तिरंगा लहरा दिया है। इसरो के पोलर सेटेलाइट लाउंच वेहिकल, पीएसएलवी ने कामयाबी की सत्रहवीं उड़ान भरते हुए तीन सेटेलाइटों को एक साथ अंतरिक्ष की विभिन्न कक्षाओं में स्थापित कर दिया। इसके साथ ही इसरो की पिछली असफलता का वह दाग भी धुल गया जब उसके दो जीएसएलवी सेटेलाइट उड़ान भरने के साथ ही असफल होकर गिर गए थे। इस सफलता ने इसरो के उस दाग पर भी मरहम लगाने का काम किया होगा जिसमें उसके एस बैंड सेटेलाइट के लिए एक निजी कंपनी से अवैध करार ने खासा हंगामा मचाया था। इस सफलता ने पीएसएलवी की तकनीक पर श्रेष्ठता की मुहर लगा दी है और भारत अब दुनिया के उन चुनिंदा देशों में शामिल हो गया है जिनके सबसे अधिक रिमोट सेंसिंग सेटेलाइट अंतरिक्ष में मंडरा रहे हैं। पीएसएलवी ने अब तक अट्ठारह बार उड़ान भरी है जिसमें केवल पहली उड़ान असफल हुई है। वर्ष 1993 की इस पहली असफलता के बाद पीएसएलवी ने पीछे मुड़ कर नहीं देखा है। अपनी सत्रह उड़ानों में इसने कुल 47 सेटेलाइट अंतरिक्ष में स्थापित किए हैं जिनमें 21 भारत के हैं। भारत ने अपना पहला रिमोट सेंसिंग सेटेलाइट वर्ष 1988 में रूसी रॉकेट की मदद से अंतरिक्ष भेजा था। लेकिन, अब इस क्षेत्र में भारत की तकनीकी श्रेष्ठता दुनिया मान रही है। आज अमेरिका, रूस, इंग्लैंड और फ्रांस जैसे देश इसरो के साथ भागीदारी को लालायित रहते हैं। तकनीकी श्रेष्ठता और सस्ता होने के कारण दुनिया के तमाम देश इसके रॉकेट और सेटेलाइटों के लिए लाइन लगाए रहते हैं। इस बार जो तीन सेटेलाइट भेजे गए हैं उनमें एक तो सिंगापुर का है और इसके अपने मुख्य सेटेलाइट रिसोर्ससेट-2 से मिले आंकड़ों का इस्तेमाल दुनिया भर के देश करेंगे। रिसोर्ससेट-2 में लगे तीन कैमरों से फसलों का अध्ययन, पहाड़ों पर जमने वाली बर्फ के आंकड़े, ग्लेशियरों की हालत, जमीन के अंदर मौजूद जल का पता लगाना और ग्रामीण क्षेत्रों में सड़कों का जाल बिछाने के लिए आवश्यक आंकड़े इकट्ठे करने जैसे महत्वपूर्ण कायरे को अंजाम दिया जाएगा। आने वाले महीनों में इसरो कम्यूनिकेशन, माइक्रोवेव रिमोट सेंसिंग सेटेलाइटों की श्रृंखला छोड़ने जा रहा है। आपको याद होगा कि इसरो के चंद्रयान-1 अभियान में पहली बार चंद्रमा पर पानी होने का पता लगा था। अब चंद्रयान-2 पर जोर शोर से काम चल रहा है। रूस के साथ संयुक्त अभियान के रूप में चलने वाला यह सेटेलाइट अगले दो वर्षो में छोड़ा जाने वाला है। इसके अलावा अमेरिका ने 2016 के अपने मूनराइज अभियान में भारत से भागीदारी की इच्छा जताई है। इस अभियान में चंद्रमा से कई तरह के नमूने इकट्ठे किए जाएंगे और इसके लिए चंद्रमा तक जाने वाला सेटेलाइट भारत प्रदान करेगा। इस प्रकार भारत ने न केवल रॉकेट तकनीक में उच्च हुनर हासिल कर लिया है बल्कि इसके बनाए सेटेलाइटों की मांग भी तेजी से बढ़ रही है।

एक और सफल उड़ान


Monday, April 18, 2011

क्यूरियोसिटी करेगा अब तक की मंगल की सबसे बड़ी पड़ताल


पिछली कुछ सदियों से सौरमंडल के जिस ग्रह ने धरती पर सबसे ज्यादा दिलचस्पी जगाई है, वह है हमारा पड़ोसी ग्रह मंगल कुछ दशक पहले तक भी लोगों का प्रबल विश्वास था (कुछ हद तक अब भी) कि पृथ्वी की तरह वहां भी कोई विकसित सभ्यता हो सकती है। 1965 में मंगल के पास से गुजरे नासा के अंतरिक्षयान वॉयजर ने इसके चित्र भेजे तो इस 'लाल ग्रह' के बारे में कई नई बातें सामने आई कि पृथ्वी से मिलता-जुलता यह ग्रह वास्तव में उससे कितना भिन्न है और उसके बारे में जानकारियां जुटाना बेहद चुनौती भरा काम है। इस क्रम में पिछले पांच दशकों से मंगल को खंगालने का काम जारी है लेकिन मंगल से जुड़े अभियानों पर अरबों डालर खर्च करने के बाद भी अब तक हम यह नहीं जान पाए हैं कि क्या मंगल पर कभी जीवन था, यदि था तो कैसा था और क्यों विलुप्त हुआ? इसी तरह, क्या मंगल के हिमाच्छादित ध्रुवों और सतह के नीचे सूक्ष्मजीवियों का अस्तित्व है? सौरमंडल की शुरुआती पड़ताल के अभियान मंगल ग्रह के पास से गुजरते हुए अंतरिक्षयानों द्वारा उसके फोटो लेने तक सीमित थे। जैसे-जैसे तकनीकी क्षमताएं बढ़ती गई, अंतरिक्षयानों को मंगल की कक्षा में भेजना संभव हुआ जिससे वे उसके चारों ओर घूमते हुए उसकी जानकारी जुटाने लगे। तकनीकी क्षमताएं और बढ़ीं तो मंगल की सतह पर लैंडर और रोबर्स को उतारना संभव हो गया। इतना ही नहीं, वहां उतारे गए रोबोटिक यानों को सतह पर घुमाना और जानकारियां जुटाने में कामयाबी मिलने लगी। मंगल पर रोबोटिक यान उतारने की इस कड़ी में अब तक के तमाम रिकार्ड तोड़ने को तैयार है 2.3 अरब डॉलर की लागत वाला क्यूरियोसिटी नामक रोबर, जिसे इन दिनों नासा के वैज्ञानिक और इंजीनियरअंतिम रूप देने में जुटे हैं। क्यूरियोसिटी को इस साल के अंत में नवम्बर और दिसम्बर के बीच मंगल के लिए रवाना किया जाएगा। यह अगले साल के मध्य तक मंगल ग्रह पर पहुंचेगा। मंगल पर अब तक भेजे गए रोवर्स जैसे कि सोजोर्नर, स्पिरिट, अपॉच्युर्निटी की तुलना में इसके कार्य एकदम अलग और बेहद जानकारी पूर्ण होंगे।

Monday, April 11, 2011

सितारों से आगे


'फ्लाइंग' पनडुब्बी से खुलेंगे समुद्र की गहराइयों के राज


यह बात अक्सर कही जाती है कि जितना ज्यादा हम पृथ्वी से बाहर सौरमंडल के ग्रहों के बारे में जानते हैं, उतना ही कम अपने महासागरों की गहराइयों के बारे में जानते हैं। चांद पर कई लोग उतर चुके हैं लेकिन अभी तक हम महासागर की गहराइयों में 20,000 फीट से ज्यादा दूर तक नहीं जा पाए हैं। सागर की इन गहराइयों में न जाने कितने रहस्य छिपे हैं जिनसे पर्दा उठना बाकी है। शायद इसी बात से प्रेरित हो ब्रिटिश अरबपति रिचार्ड ब्रानसन ने छोटी-सी पनडुब्बी में दुनिया के पांचों महासागरों के सबसे गहरे स्थलों में पहली बार उतरने की योजना बनाई है जिसका उन्होंने हाल ही में खुलासा किया है। वर्जिन ओशनिक नामक यह पनडुब्बी इस साल के अंत में पश्चिमी प्रशांत महासागर के सबसे गहरे स्थल से यात्रा शुरू कर उस क्षेत्र का नक्शा तैयार करेगी और गहराइयों के नमूने लेगी। अभी तक महासागरों की गहरी खाइयों तक रोबोटिक वाहनों के जरिये ही पहुंचा जा सका है। ब्रानसन के मुताबक, 'अंतरिक्ष में तो मनुष्य ने काफी पहले कदम रख लिए हैं, और अब व्यावसायिक अंतरिक्ष पर्यटन की शुरुआत होने वाली है लेकिन अपने ग्रह के महासागरों की गहराइयों तक पहुंचना और उनके बारे में जानना अभी तक भी हमारे लिए अहम चुनौती बनी हुई है।'
इस अभियान में ब्रानसन अमेरिकी सेलर और एक्सप्लोरर क्रिश वेल्श के साथ सह पायलट होंगे। पंख वाली तथा स्पेस शटल के आकार की इस पनडुब्बी के मुख्य पायलट क्रिश ही होंगे। दो वर्षो के अंतराल में यह पनडुब्बी पांच बार महासागरों के सबसे गहरे स्थल में उतरेगी। इन दिनों यह पनडुब्बी महासागरों की गहराइयों में भारी दबाव को झेलने के परीक्षणों के दौर से गुजर रही है। परीक्षण सफल रहा तो चीफ पायलट वेल्श द्वारा इस साल के आखिर तक इसे प्रशांत महासागर के अब तक ज्ञात सबसे गहरे स्थल मैरियाना ट्रेंच में उतारा जाएगा। मैरियाना ट्रेंच की गहराई 10,924 मीटर है। इस पहली यात्रा के 'बैक-अप' पायलट ब्रानसन तब लाल, नीले और सफेद रंग की पनडुब्बी को अटलांटिक महासागर की प्यूटरे रिको खाई में उतारेंगे। अभी तक इसकी खोजबीन नहीं की जा सकी है। इसकी गहराई 8,605 मीटर है। ब्रानसन की पनडुब्बी यदि सफलतापूर्वक मैरियाना ट्रेंच के तल तक पहुंचने में कामयाब हो जाती है तो यह अमेरिकी नेवी की रोबोटिक पनडुब्बी 'ट्रीस्टी' के बाद पहुंचने वाली पहली मानवयुक्त पनडुब्बी होगी। यह पनडुब्बी 23 जनवरी 1960 में यहां पहुंची थी। इसके बाद यहां कोई नहीं पहुंचा। वर्जिन पनडुब्बी अपने 'पंखों' से समुद्र तल पर 10 किलोमीटर तक 'उड़' सकती है और 24 घंटे तक खुद का संचालन करते हुए पहले कभी न देखे गए समुद्री जीवन के चित्र ले सकती है। वेल्श के मुताबिक इस एडवेंचर के खतरे भी कम नहीं है क्योंकि इसे सामान्य से 1,000 गुना ज्यादा वायुमंडलीय दबाव झेलना होगा। यह पनडुब्बी 8,000 पाउंड कार्बन फाइबर की बनी हुई है और चारों ओर देखने के लिए क्वाट्र्ज का गुबंद बना हुआ है। पनडुब्बी पर आया जरा सा भी 'लीक' आदमी को ही नहीं, इस्पात को भी चीरकर रख देगा जिससे मौत निश्चित है। इतनी गहराई पर किसी तरह का बचाव भी संभव नहीं होगा। इस प्रोजेक्ट के वैज्ञानिक उद्देश्य हैं और इससे समुद्र का अध्ययन करने वाली कई यूनिवर्सिटियां जुड़ी हुई हैं। इस प्रोजेक्ट के बाद 60 वर्षीय ब्रानसन का अगले साल की शुरुआत में वर्जिन गैलेटिक प्रोजेक्ट शुरू हो रहा है जिसके तहत व्यावसायिक अंतरिक्ष पर्यटन की शुरुआत होगी। रिचार्ड ब्रानसन का नया एडवेंचर धरती (महासागर) पर सबसे गहरे स्थल मैरियाना ट्रेंच: 35,840 फीट/10,924 मीटर (प्रशांत महासागर) प्यूटरे रिको ट्रेंच: 28, 374 फीट/8648 मीटर (अटलांटिक महासागर) यूरेसिया बेसिन: 17,881फीट/5450 मीटर (आर्कटिक महासागर) जावा ट्रेंच: 23,376 फीट/ 7125 मीटर (ंिहंद महासागर) सैंडविच ट्रेंच: 23,736फीट/ 7235 मीटर (सदर्न ओशन)

प्रयोगशाला में बनाई किडनी


वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि उन्होंने प्रयोगशाला में स्टेम कोशिकाओं की मदद से गुर्दा (किडनी) तैयार कर लिया है। इस विकास को चिकित्सा जगत में बड़ी सफलता माना जा रहा है। इसके बाद अब प्रत्यारोपण के लिए इस अंग की कमी से निपटने में मदद मिलेगी। स्कॉटलैंड के एडिनबर्ग विश्वविद्यालय के एक शोध दल को यह अभूतपूर्व कामयाबी मिली है। स्टेम कोशिकाएं शरीर के निर्माण में बेहद अहम भूमिका निभाती हैं। द स्कॉट्समैन की खबर के अनुसार, प्रयोगशाला में बनकर तैयार इस अंग की लंबाई भू्रण में गुर्दे के आकार के बराबर यानी आधा सेंटीमीटर है और इसे बनाने वाले दल को उम्मीद है कि यह छोटा सा गुर्दा मानव शरीर में प्रत्यारोपित होने के बाद बढ़कर सामान्य गुर्दे के बराबर हो जाएगा। यहां तक कि इस गुर्दे को तैयार करने में अमीनियोटिक द्रव्य की कोशिकाओं का प्रयोग किया गया है। यह द्रव्य गर्भ में बच्चे के चारों ओर फैला रहता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि बच्चे के जन्म के समय चिकित्सक इस द्रव्य को एकत्रित कर सकते हैं और तब तक संचित रख सकते हैं जब तक गुर्दे की बीमारी वाले मरीज को इसकी जरूरत नहीं पड़ती। नए गुर्दे के निर्माण के लिए व्यक्ति की खुद की अमीनियोटिक द्रव्य कोशिकाएं इस्तेमाल की जा सकती हैं। ऐसा करने से उस समस्या का भी अंत होगा जब किसी मृतक देनदाता के अंग का इस्तेमाल करने को लोग खारिज कर देते हैं। इस दल के प्रमुख प्रोफेसर जैमी डेवीस ने कहा कि सोच यह थी कि मानव स्टेम कोशिकाओं से शुरुआत की जाए और कार्यशील अंग पर खत्म। अगर आपके पास टेस्ट ट्यूब में स्टेम कोशिकाओं का गच्च्छा मौजूद हो तो इसे जटिल गुर्दे जैसा अंग बनने में बेहद लंबा सफर तय करना होगा। उन्होंने कहा कि इसलिए हम इस पर काम कर रहे हैं कि कैसे तरल में तैरती कोशिकाओं को आप कुछ ऐसे व्यवस्थित करते हैं कि वह गुर्दे के रूप में तब्दील हो जाएं। उन्होंने कहा कि हमने इस संबंध में काफी अच्छी प्रगति की है। हम कुछ ऐसा बना सकते हैं जो जटिलता के मामले में सामान्य भ्रूणीय गुर्दे जैसा हो मगर अभी तक परिपक्व नहीं हुआ हो। मानव में इस गुर्दे का प्रत्यारोपण संभव बनाने के लिए स्कॉटलैंड और अमेरिका के शोध दल विभिन्न तकनीकों पर काम कर रहे हैं। मिशिगन के दल ने भ्रूणीय स्टेम कोशिकाओं को गुर्दे की स्टेम कोशिकाओं में बदलने के लिए रसायनों का प्रयोग किया|

अब चांद पर खनन की तैयारी!


कंपनियां अब धरती के साथ-साथ चांद पर भी कारोबार के लिए संभावनाएं तलाश रही हैं। इसी कड़ी में भारतीय मूल के एक कारोबारी की ओर से स्थापित कंपनी ने चंद्रमा पर खनन की योजना बनाई है और इसके लिए एक विशेष रोबोट का निर्माण किया जा रहा है, जो इस उपग्रह पर संभावित खनिज पदार्थो का पता लगाएगा। मून एक्स नामक इस कंपनी की बुनियाद भारतीय मूल के कारोबारी नवीन जैन ने रखी थी। वह नासा के एमेस रिसर्च सेंटर के साथ मिलकर रोबोट का निर्माण कर रही है। समाचार पत्र लॉस एंजिल्स टाइम्स के मुताबिक जैन ने कहा, इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि चांद पर खनिज संपदा है, हालांकि मून एक्स का मानना है कि वहां सोने की खदान हो सकती है। उन्होंने कहा, एक कारोबारी के नजरिए से देखें तो चंद्रमा पर मौजूद संसाधानों को लेकर कभी सही ढंग से पड़ताल नहीं की गई। हमारा मानना है कि वहां ऐसे संसाधन हो सकते हैं, जो पृथ्वी और पूरी मानवता के लिए फायदेमंद हों। खबर में लिखा गया है कि मून एक्स की मशीनों को ऐसे खनिज ढूंढ़ने के लिए डिजाइन किया गया है जो धरती पर तो कम मात्रा में हैं मगर क्रूज मिसाइल से लेकर कार बैटरी तक सब जगह पाए जाते हैं। जैन ने कहा, मून एक्स को वर्ष 2013 तक चंद्रमा की सतह पर उतरने के लिए तैयार रहना चाहिए। वहां सबसे पहले पहंुचना हमारा लक्ष्य है। मून एक्स में नासा के पूर्व इंजीनियरों सहित कुल 25 लोग काम करते हैं। कंपनी को नासा से एक करोड़ डॉलर का ठेका मिला है। यह कंपनी कई अन्य कंपनियों के साथ गूगल ल्यूनर एक्स पुरस्कार जीतने की होड़ में है। तीन करोड़ इनामी राशि वाली इस प्रतियोगिता को जीतने के लिए चंद्रमा की सतह पर सबसे पहले अपने रोबोट को उतारना होगा। यह रोबोट कम से कम एक मील के एक तिहाई हिस्से तक खनन में सक्षम होना चाहिए और 2016 से पहले उच्च्च गुणवत्ता वाले वीडियो और तस्वीरों को धरती पर भेज दे। जैन ने कहा कि निजी खर्चे पर चांद पर खनन के लिए संसाधन जुटाना ज्यादा चिंता की बात नहीं हैं। उन्होंने कहा, मैं यह भी सोचता हूं कि हमारे महासागरों के जल की तरह ही चंद्रमा के साथ भी भिन्न बर्ताव नहीं किया जाएगा। ऐसे मामले में, जल पर किसी का अधिकार नहीं होता मगर कोई भी कंपनी या देश कुछ निश्चित सुरक्षा या नैतिक दिशा निर्देशों को ध्यान में रखते हुए अंतरराष्ट्रीय जल से संसाधनों का खनन कर सकता है|

Sunday, April 10, 2011

मौसम गरीबों के लिए होता है


विज्ञान सभी के लिए वरदान हो सकता है, अगर सभी में उसका उपयोग करने की आर्थिक क्षमता हो जाए। विज्ञान भी आदमी ने ही बनाया है और आर्थिक विषमता भी आदमी ने ही पैदा की है। स्पष्ट है कि जिसे मानवता के लिए वरदान कहा जा सकता है, वह सभी के लिए वरदान नहीं बन पाया है। जैसे धर्म पर कुछ लोगों ने कब्जा कर रखा था, वैसे ही विज्ञान पर भी कुछ लोगों ने कब्जा कर रखा है
जब हम आठवीं-नौवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब निबंधों की हर पुस्तक में इस विषय पर निबंध जरूर होता था, विज्ञान: वरदान या अभिशाप। जाहिर है, सभी निबंधों में वरदान अभिशाप पर भारी पड़ता था। पिछली शताब्दी में विज्ञान ने जो बड़े-बड़े करतब किए हैं, उनमें एक महत्त्वपूर्ण घटना है मौसम पर नियंत्रण। यह मामूली बात नहीं है। मौसम किसी एक गांव या शहर का नहीं होता, बड़े इलाके का होता है। मौसम से संघर्ष करने के लिए मनुष्य ने क्या-क्या नहीं किया। अब जाकर सम्भव हुआ है कि जाड़े में हीटर और गरमी में एअरकंडीशनर जैसी सुविधाएं पैदा हो पाई हैं। जाड़े के दिनों में बहुत-से लोग अपने गरम घर से निकलते हैं, गरम गाड़ी में बैठ जाते हैं और फिर गरम दफ्तर में दाखिल हो जाते हैं। इसी तरह, गरमी में वे ठंडे घर से निकलते हैं, ठंडी गाड़ी में बैठ जाते हैं और ठंडे दफ्तर में काम करते हैं। शानदार लोग अपनी-अपनी शानदार कोठियों से बारिश का आनंद लेते हैं। जीत लिया है न, आदमी ने मौसम को? गरमी दबे पांवों से, आहिस्ता-आहिस्ता हमारी जिंदगी में दाखिल हो रही है। अनुमान है कि इस साल प्रचंड गरमी पड़ेगी। लेकिन कौन जानता है। अब ऋतुओं के बारे में भविष्यवाणी करना सम्भव नहीं रहा। आदमी कु छ सोचता है, हो कुछ और जाता है। होता तो पहले भी ऐसा ही होगा, पर इतनी जल्दी-जल्दी नहीं। मौसम किसी का गुलाम नहीं है। अब वह उच्छृंखल भी हो गया है। कारण जलवायु परिवर्तन है, जो हमारी अपनी करतूत है। लम्बे दौर में इससे अमीर-गरीब सभी प्रभावित होंगे। मनुष्य अब भी इतना सचेतन नहीं हो पाया है कि वह दूर भविष्य की सोच सके। उसकी नजर एक या दो पीढ़ियों से आगे नहीं जाती। शायद वह समय आ रहा जब हम सभी को आगे के लिए सोचना ही पड़ेगा। जापान में सुनामी के बाद परमाणु विकिरण इसका सिर्फ एक छोटा-सा सबूत है। बड़ी-बड़ी विभीषिकाएं नेपथ्य में प्रतीक्षा कर रही होंगी। गरमी अभी ठीक से आई नहीं है, पर जिनके पास एअरकंडीशनर है या हैं, वे उसमें या उनमें गैस भरवाने लग गए हैं। जो कू लर पर निर्भर हैं, वे अभी नहीं जागे हैं, पर जल्द ही वे भी सक्रिय हो जाएंगे। बिजली के पंखे ज्यादा भरोसेमंद और किफायती साथी हैं। कई-कई साल रिपेयर के बिना चलते हैं। लेकिन जिनके पास इनमें से कु छ भी नहीं है वे गरमी का अभिशाप वैसे ही भोगने की मानसिक तैयारी कर रहे हैं; जैसे उन्होंने जाड़ा बिताया था। बरसात में भी इस वर्ग का बुरा हाल होता है। जिन झोपड़ियों में वे रहते हैं, वे बरसात-प्रूफ नहीं होती हैं। उनमें रहने वाले पुरु षों और खासकर स्त्रियों को बरसते-रिसते-टपकते पानी से जूझने में अपनी आधी ऊर्जा झोंक देनी पड़ती है। इस तरह हम देख सकते हैं कि मौसम सिर्फ गरीबों के लिए होता है। जिनके पास साधन हैं, वे मौसम से प्रभावित नहीं होते। उनके घर, वाहन और काम करने की जगहें मौसम के मोड़ों से प्रभावित नहीं होते। ये सदाबहार लोग हैं और सदाबहार जिंदगी जीते हैं। कहा जा सकता है, इसमें विज्ञान का क्या दोष है? वास्तव में विज्ञान का दोष नहीं है। दोष उनका है जो विज्ञान और टेक्नोलॉजी पर कब्जा किए हुए हैं। ऐसा नहीं है कि विज्ञान इस वर्ग के लिए वरदान है और बाकी लोगों के लिए अभिशाप है। वह सभी के लिए वरदान हो सकता है, अगर सभी में उसका उपयोग करने की आर्थिक क्षमता हो जाए। विज्ञान भी आदमी ने ही बनाया है और आर्थिक विषमता भी आदमी ने ही पैदा की है। स्पष्ट है कि जिसे मानवता के लिए वरदान कहा जा सकता है, वह सभी के लिए वरदान नहीं बन पाया है। जैसे धर्म पर कु छ लोगों ने कब्जा कर रखा था, वैसे ही विज्ञान पर भी कु छ लोगों ने कब्जा कर रखा है। इसलिए कहा जा सकता है कि जो भी अच्छी चीजें हैं, वे सम्पूर्ण मानवता के लिए नहीं हैं। भारत के 99 प्रतिशत लोगों ने अभी तक प्लेन से सफर नहीं किया होगा। 50 प्रतिशत लोग ट्रेन में नहीं चढ़े होंगे। इससे भी ज्यादा लोग प्राइवेट कार में नहीं बैठे होंगे। क्या यह नारा लगाया जा सकता है कि हर उस नई सुविधा को बंद करो जो देश के अधिकांश लोगों की पहुंच के बाहर है! या तो विज्ञान को मुक्त करो या उसे तब तक स्थगित रखो जब तक उसे मुक्त कराने की स्थितियां न बन जाएं। क्या विज्ञान को विशिष्ट लोगों के चंगुल से कभी मुक्त कराया जा सकेगा? सम्पन्न देशों ने ऐसा कर दिखाया है क्योंकि उनकी आबादी कम है और उनके पास पैसा ज्यादा है। उनकी तुलना हम अपने देश से करें, तो हमारे हाथों से तोते उड़ जाएंगे। कल्पना कीजिए कि देश के हर आदमी को एअरकंडीशनर और हीटर मुहैया किया जाए, सबको चलने के लिए मोटरकार दी जाए, दूर की और जल्दी यात्रा करनी हो तो हवाई जहाज से यात्रा करने की सुविधा उपलब्ध कराई जाए, रहने के लिए सीमेंट या कंक्रीट के मकान बनाए जाएं, हर घर में प्लाज्मा टेलीविजन हो आदि- आदि। तब कितने सीमेंट, फाइबर आदि जैसे भौतिक संसाधनों की जरूरत होगी? यह भी मान लीजिए कि देश की आबादी डेढ़ अरब पर जा कर स्थिर हो जाती है, तब भी विज्ञान और टेक्नोलॉजी द्वारा प्रदत्त आधुनिकतम सुविधाओं को हर आदमी तक पहुंचाना क्या भारत के उपलब्ध संसाधनों की क्षमता के दायरे में आ सकता है? 50-100 साल के बाद भी आ सकेगा? क्या देश में कभी इतनी बिजली पैदा की जा सकती है जिससे पूरी आबादी इसका लाभ प्राप्त कर सके? अगर नहीं, अगर यह असम्भव है, तो हम जिसे विकास और उन्नति कह रहे हैं, वह क्या है? किसके लिए है? क्या यह विचार का विषय नहीं है? क्या यह भी विचार का विषय नहीं है कि जिसे भ्रष्टाचार कहते हैं, वह देश के सीमित संसाधनों में लूट का अपना हिस्सा सुनिश्चित करने के लिए वह अनिवार्य हो उठता है?


Wednesday, April 6, 2011

पीढ़ी दर पीढ़ी पीछा करेगा रेडिएशन


जीवन का चौथा रूप खोजा!


 धरती पर लंबे समय से जीवन के चौथे रूप के अस्तित्व को लेकर जीव विज्ञानियों के बीच बहस चल रही है। अब जाकर अमेरिकी वैज्ञानिकों को धरती पर जीवन के चौथे रूप की मौजूदगी के ठोस प्रमाण मिले हैं। उल्लेखनीय है कि धरती पर जीवों को अभी तीन रूप में विभाजित किया गया है। पहले जटिल शारीरिक रचना वाले जानवर, मनुष्य, पेड़-पौधे, दूसरे बैक्टीरिया और तीसरे आर्किया हैं। इनमें आखिरी दो सूक्ष्मजीवियों में आते हैं। अब कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय में जीवविज्ञान के प्रोफेसर जोनाथन ईसेन ने दावा किया कि उन्होंने चौथी श्रेणी को खोज लिया है। उन्होंने अपने साथी शोधकर्ता डॉ. क्रेग वेंटर द्वारा दुनिया के दौरे पर इकट्ठे किए गए डीएनए के अध्ययन के लिए जटिल जीन संरचना तकनीकी का इस्तेमाल किया। उन्होंने पाया कि डीएनए के इन नमूनों में मौजूद जीन जीवन के मौजूदा तीनों रूपों में से किसी से मेल नहीं खाते। उनका कहना है कि ये जीन किसी चौथे जीव के हो सकते हैं। नए डीएनए को जीवन के किसी भी वर्ग में डालने के प्रयास में असफल साबित होने पर प्रोफेसर ईसेन ने अपने तथ्यों को पब्लिक लाइब्रेरी ऑफ साइंस पत्रिका में प्रकाशित किया है, ताकि अन्य वैज्ञानिक अपनी जानकारियों के साथ इस काम में मदद के लिए आगे आएं। सवाल यह है कि ये डीएनए कहां से आए? क्या ये किसी अलग प्रकार के वायरस से ताल्लुक रखते हैं? अगर ऐसा है तो जीवन के चौथे रूप का अस्तित्व अपने आप में काफी रोचक है। सबसे बड़ी बात यह है कि ये जीवन वृक्ष की एकदम नई शाखा का का प्रतिनिधित्व कर सकते हैं। प्रोफसर ईसेन के हवाले से द डेली टेलीग्राफ ने लिखा है, हालंाकि अभी तक हमें इसके पीछे की पूरी कहानी मालूम नहीं पड़ी है। आखिर में हमने तय किया कि इस अध्ययन को प्रकाशित कराया जाए ताकि अन्य लोग भी इस मामले पर विचार कर सकें। इन नए जीन का अध्ययन करने में कठिनाई इनके अल्प मात्रा में उपलब्ध होने के कारण आ रही है। मगर डॉ. वेंटर के तरीके का इस्तेमाल कर ईसेन ने मानव जनेटिक कोड को पढ़ने का सफल प्रयास किया। उन्होंने इस तकनीक को मेटाजीनोमिक्स नाम दिया है। इसके तहत डीएनए को टुकड़ों में विभाजित कर दिया जाता है और उनको डिकोड कर लिया जाता है। इसके पश्चात इन्हें सही क्रम में फिर से व्यवस्थित कर दिया जाता है। सस्ते और शक्तिशाली कंप्यूटरों के कारण विज्ञान को बड़ा फायदा पहुंचा है। डॉ. वेंटर द्वारा 2003 से 2007 के बीच दुनियाभर के समुद्रों से एकत्रित किए नमूनों पर शोधदल ने अपनी तकनीक को इस्तेमाल किया। प्रोफेसर ईसेन आरईसी ए और आरपीओ बी नामक दो जीनों पर अटक गए। ये दोनों पुराने और प्रचूर मात्रा में थे जिनकी विशेषताएं सार्वजनिक जनेटिक डाटाबेस से बिल्कुल अलग थीं। इस खोज के वर्गीकरण के लिए शोध जारी है मगर समस्या यह है कि यह जानकारी नहीं है कि ये जीन आखिर आए कहां से। इन्हें सामान्य तौर पर लिए गए समुद्री जल के नमूनों से हासिल किया गया है|

Monday, April 4, 2011

पृथ्वी होगी मंदिर सी लाल


 सुर्ख लाल और गर्म ग्रह मंगल हमेशा से ऐसा नहीं था। ताजा वैज्ञानिक अनुमान यही है। इस पर भी सनसनीखेज वैज्ञानिक दावा यह है कि मंगल के लाल रंग का होने की वजह वहां लाखों साल पहले हुआ परमाणु विस्फोट है। यानी अगर जीवनदायिनी धरती पर भी ऐसे ही परमाणु धमाके हुए यह तो यह भी निर्जन और लाल रंग की हो जाएगी। डॉ. जॉन ब्रैंडेनबर्ग का मानना है कि 1800 लाख साल पहले संभवत: किसी ग्रह के टकराने से वहां प्राकृतिक रूप से अत्यधिक भीषण परमाणु विस्फोट हुए जिससे वहां सब कुछ तहस-नहस हो गया। उससे उठे भीषण ताप और झटके से वहां सबकुछ सूखी रेत में तब्दील हो गया। उनका कहना है कि मंगल ग्रह की सतह पर रेडियोएक्टिव पदार्थो की एक पतली परत है। इसमें यूरेनियम, थोरियम और रेडियोएक्टिव पोटैशियम शामिल है। उन्होंने फॉक्स न्यूज को बताया कि इस पदार्थो के साथ ही सतह पर एक जगह लाल धधकता हुआ विशालकाय धब्बा है। उनका मानना है कि यह परमाणु कण इसी धब्बे से ग्रह की पूरी सतह पर फैले हैं। उनका अनुमान है कि किसी परमाणु विस्फोट से उसका सारा मलबा पूरे ग्रह की सतह पर फैल गया होगा। मंगल ग्रह पर गामा किरणों से मिले नक्शे के अनुसार ग्रह पर एक बड़ा लाल धब्बा है। इन गामा किरणों की मदद से पता चलता है कि परमाणु विकिरण का केंद्र यही धब्बा है। आर्बिटल टेक्नोलॉजीस कॉर्प के वरिष्ठ वैज्ञानिक डॉ. ब्रैंडनबर्ग के अनुसार प्राकृतिक परमाणु विस्फोट तकरीबन दस लाख एक मेगाटन हाइड्रोजन बम विस्फोटों के बराबर रहा होगा। यह विस्फोट मंगल ग्रह के उत्तरी मेर एसिडेलियम क्षेत्र में हुआ होगा। इसीलिए यहां पर भारी मात्रा में परमाणु विकिरण देखा जा सकता है। उन्होंने बताया कि इन्हीं धमाकों के कारण इस क्षेत्र में रेडियो तरंगों के थक्के बन गए। जिन्हें कि हाल में नासा के मंगल ग्रह पर गामा किरणें डालकर उसकी परतों के आंकड़े एकत्र करने के दौरान पाया गया। इस रेडियोधर्मिता से यह भी साफ हो जाता है कि मंगल ग्रह लाल रंग का क्यों दिखता है। नासा के एकत्र किए इन आंकड़ों के आधार पर डॉ. ब्रैंडनबर्ग का सिद्धांत यह है कि इस प्राकृतिक परमाणु विस्फोट के चलते ही मंगल ग्रह उजड़ गया और वहां पर मौजूद हर चीज खत्म हो गई। उनका मानना है कि कभी पृथ्वी पर भी ऐसा ही प्राकृतिक परमाणु विस्फोट संभवत: होता तो सबकुछ खत्म हो जाता। यानी पृथ्वी भी मंगल ग्रह जैसी वीरान और लाल रंग की हो जाएगी। नासा के जेट प्रोपुलजन के मंगल ग्रह कार्यक्रम के साइंस मैनेजर डॉ. डेविड बेटी का कहना है कि यह अवधारणा बहुत ही तार्किक है कि लेकिन पुख्ता वैज्ञानिक आधार के लिए मंगल ग्रह के मेर एसिडेलियम क्षेत्र में एक अभियान भेजना होगा। पहली बार वैज्ञानिकों ने मंगल ग्रह पर जीवन की संभावना ढूं्ढने के बजाय वहां पर हुए विनाश की थ्योरी पर काम किया है। हो सकता है इससे ही जीवन के संकेत भी साफ हो सकें|