Wednesday, July 27, 2011

अंतरिक्ष में सम्मान


कम संसाधनों और कम बजट के बावजूद भारत आज अंतरिक्ष में कीर्तिमान स्थापित कर रहा है। इस साल भारत अंतरिक्ष में दो उपग्रह छोड़ चुका है। अंतरिक्ष अभियान के क्षेत्र में एक और मील का पत्थर स्थापित करते हुए भारत ने 15 जुलाई को स्वदेश निर्मित अत्याधुनिक संचार उपग्रह जीसैट-12 का श्रीहरिकोटा से ध्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी सी-17 से प्रक्षेपण करने में सफलता हासिल की है। इस प्रक्षेपण के बाद भारत के 187 ट्रांस्पोंडर हो जाएंगे। लेकिन अभी भी हम इसरो द्वारा लक्षित 2012 तक 500 ट्रांस्पोंडरों से पीछे हैं। इसके माध्यम से डीटीएच, वी सैट परिचालन के क्षेत्र में बढ़ रही मांग को पूरा करने में मदद मिलेगी। अंतरिक्ष अनुसंधान के क्षेत्र में हम लगातार प्रगति कर रहे हैं, लेकिन अभी भी हम पूरी तरह से आत्मनिर्भर नहीं हो पाए हैं। गत वर्ष इसरो ने जीसैट-8 का प्रक्षेपण फ्रेंच गुयाना के अंतरिक्ष केंद्र से किया था। पर्यावरण संबधी अध्ययन के लिहाज से फ्रांस से संयुक्त उपक्रम पर विचार चल रहा है। क्रायोजेनिक तकनीकी के परिप्रेक्ष्य में पूर्ण सफलता नहीं मिलने के कारण भारत इस मामले में आत्मनिर्भर नहीं हो पाया है, जबकि प्रयोगशाला स्तर पर क्रायोजेनिक इंजन का सफलतापूर्वक परीक्षण किया जा चुका है। स्वदेशी क्रायोजेनिक इंजन की सहायता से लांच किए गए प्रक्षेपण यान जीएसएलवी की असफलता के बाद इस पर सवालिया निशान लगा हुआ है। भारतीय प्रक्षेपण रॉकेटों की विकास लागत विदेशी प्रक्षेपण रॉकेटों की लागत की एक-तिहाई है। भारत में इनसैट प्रणाली की क्षमता को जीसैट द्वारा मजबूत बनाया जा रहा है, जिससे दूरस्थ शिक्षा, दूरस्थ चिकित्सा ही नहीं बल्कि ग्राम संसाधन केंद्र को उन्नत बनाया जा सकेगा। जीसैट 12 को इंसैट 2 ई और इनसैट 4 ए के साथ स्थापित किया जाएगा। 2002 में कल्पना के बाद पीएसएलवी के 19 प्रक्षेपण में यह दूसरा मौका है जब संचार उपग्रह छोड़ने में इसका उपयोग किया गया है। इसरो ने इस प्रक्षेपण में उच्च क्षमता के 40 विन्यासों का उपयोग किया, जिनमें छह ठोस मोटर हैं, जो 12 टन प्रणोदक ले जा रहे हैं। इसके पहले पीएसएलवी की उड़ानों के लिए नौ टन प्रणोदक ले जाने का मानक रहा है। 2010 में जीएसएलवी के दो अभियान विफल हो गए थे। जीएसएलवी एफ 06 संचार उपग्रह जीसैट-5 पी को लेकर जाने वाले इस यान में प्रक्षेपण के महज एक मिनट बाद ही विस्फोट हो गया था और यह बंगाल की खाड़ी में गिर गया था। इसी तरह जीएसएलवी-डी 3 जीसैट-4 का अभियान भी अप्रैल 2010 में विफल हो गया था। इन विफलताओं के कारण भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन के आगामी कार्यक्रमों पर भले ही संदेह जताया गया हो, लेकिन इसरो के पीएसएलवी सी-16 ने 20 अप्रैल, 2011 को रिर्सोस सैट-2 एवं अन्य छोटे उपकरणों को निर्धारित कक्षाओं में ले जाकर सफलता पूर्वक स्थापित किया। रिर्सोस सैट 2 ऐसा आधुनिक सेंस्ंिाग उपग्रह है जिससे प्राकृतिक संसाधनों के अध्ययन और प्रबंधन में मदद मिलेगी। इसरो के अध्यक्ष के राधाकृष्णन ने कहा है कि भारत की अंतरिक्ष योजना भविष्य में मानवयुक्त अंतरिक्ष मिशन भेजने की है। लेकिन इस तरह के अभियान की सफलता सुनिश्चित करने के लिए अभी बहुत सारे परीक्षण किए जाने हैं। भारत वर्ष 2016 में नासा के चंद्र मिशन का हिस्सा बन सकता है और इसरो चंद्रमा के आगे के अध्ययन के लिए अमेरिकी जेट प्रणोदन प्रयोगशाला से साझेदारी भी कर सकता है। देश में आगामी चंद्र मिशन चंद्रयान 2 के संबंध में कार्य प्रगति पर है। चंद्रयान 2 के 2013-14 में प्रक्षेपण की संभावना है। भविष्य में अंतरिक्ष के क्षेत्र में प्रतिस्पर्धा बढ़ेगी। कुछ साल पहले तक फ्रांस की एरियन स्पेस कंपनी की मदद से भारत अपने उपग्रह छोड़ता था। अब वह ग्राहक के बजाय साझेदारी की भूमिका पर पहुंच गया है। भारत अंतरिक्ष विज्ञान में नई सफलताएं हासिल करके विकास को गति प्रदान कर सकता है। (लेख्रक स्वतंत्र टिप्पणीकार हैं).

Saturday, July 16, 2011

संचार उपग्रह जीसैट का सफल प्रक्षेपण

श्रीहरिकोटा, एजेंसियां : अंतरिक्ष अभियान के क्षेत्र में एक और मील का पत्थर स्थापित करने हुए भारत ने शुक्रवार को अत्याधुनिक संचार उपग्रह जीसैट-12 का श्रीहरिकोटा से स्वदेश निर्मित घ्रुवीय उपग्रह प्रक्षेपण यान पीएसएलवी-सी17 से अंतरिक्ष में सफल प्रक्षेपण किया। उच्च क्षमता वाले 12 ट्रांसपांडर युक्त जीसैट-12 उपग्रह का जीवनकाल करीब आठ वर्ष है। पीएसएलवी के साथ इसपर करीब 200 करोड़ रुपये का खर्च आया है। उम्मीद की जा रही है कि इससे देश को ट्रांसपांडरों की कमी से निजात मिल सकेगी। करीब 53 घंटे की उल्टी गिनती के बाद शाम चार बजकर 48 मिनट पर सतीश धवन अंतरिक्ष केंद्र के दूसरे प्रक्षेपण स्थल से भारतीय अंतरिक्ष अनुसंधान संगठन (इसरो) का राकेट पीएसएलवी आकाश के सीने को चीरता हुए आगे बढ़ा और 20 मिनट बाद ही 1,410 किलोग्राम का जीसैट-12 को कक्षा में पहुंचा दिया गया। जीसैट-12 से टेलीमेडिसिन और टेली ऐजुकेशन समेत विभिन्न संचार सेवाओं के लिए ट्रांसपांडर की उपलब्धता बढ़ाने में मदद मिलेगी। जीसैट-12 के प्रक्षेपण के बाद भारत के 175 ट्रांसपांडर हो जाएंगे लेकिन अभी भी इसरो के 2012 तक 500 ट्रांसपांडर के लक्ष्य से पीछे है जिसके माध्यम से दूरसंचार, डायरेक्ट टू होम और वी सैट परिचालन के क्षेत्र में बढ़ती मांगों को पूरा करने में मदद मिलेगी। सफल प्रक्षेपण से प्रफुल्लित नजर आ रहे इसरो के अध्यक्ष के राधाकृष्णन ने इसकी घोषणा करते हुए कहा, मुझे यह बताते हुए काफी खुशी हो रही है कि पीएसएलवी-सी17 : जीसैट 12 अभियान सफल रहा। प्रक्षेपण यान ने काफी सटीक ढंग से उपग्रह को उपयुक्त कक्षा में भेज दिया। अपने लगातार 18वें सफल अभियान में पीएसएलवी बादल भरे आसमान को चीरता हुआ आगे बढ़ा और उपग्रह के कक्षा में पहुंचने के बाद नियंत्रण कक्ष में मौजूद वैज्ञानिकों की खुशी का ठिकाना नहीं रहा। इसरो के अध्यक्ष राधाकृष्णन ने कहा कि प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने जीसैट 12 के सफल प्रक्षेपण के लिए इसरो की पूरी टीम को बधाई दी है। राधाकृष्णन ने कहा कि आने वाले महीने में इसरो पीएसएलवी के कई मिशनों को आगे बढ़ाएगा और कई उपग्रहों का प्रक्षेपण करेगा। वहीं, इसरो की इस उपलब्धि पर बधाई देते हुए प्रधानमंत्री कार्यालय में राज्यमंत्री वी. नारायणसामी ने कहा कि इससे देश को और ट्रांसपांडरों की जरूर को पूरा करने में मदद मिलेगी। जीसैट-12 को पृथ्वी के सबसे करीबी बिन्दू 284 किलोमीटर और सबसे दूर के बिन्दु 21 हजार किलोमीटर के दीर्घवृताकार स्थानांतरण कक्षा में भेजा गया है। इसी तरह, यान में लगा तरल दूरस्थ मोटर उपग्रह (एलएएमएस) को वृताकार कक्षा में स्थापित करने में उपयोग में लाया जाएगा। जीसैट का उद्देश्य इनसैट प्रणाली की क्षमता को मजबूत बनाना है ताकि दूरस्थ शिक्षा, दूरस्थ चिकित्सा और ग्राम संसाधन केंद्र को उन्नत बनाया जा सके। जीसैट 12 को इनसैट 2ई और इनसैट 4ए के साथ स्थापित किया जाएगा। साल 2002 में कल्पना के बाद पीएसएलवी के 19 प्रक्षेपण में यह दूसरा मौका है जब संचार उपग्रह छोड़ने में इसका उपयोग किया गया है। इसरो ने इस प्रक्षेपण में उच्च क्षमता के 40 विन्यासों का उपयोग किया जिसमें छह ठोस मोटर लगे हुए हैं जो 12 टन ठोस प्रणोदक ले जा रहा है। इससे पहले पीएसएलपी के उड़ानों के लिए नौ टन प्रणोदक ले जाने का मानक रहा था। जिसप्रकार के विन्यास का उपयोग जीसैट के प्रक्षेपण के लिए किया गया है, उस प्रकार के विन्यास का उपयोग साल 2008 में चंद्रयान के प्रक्षेपण के लिए किया गया था। अप्रैल और दिसंबर 2010 में जीएसएलवी की दो उड़ानों के विफल रहने के बाद इसरो ने अपने विश्वस्थ प्रक्षेपण यान पीएसएलवी को जीसैट-12 के प्रक्षेपण के लिए चुना। जीएसएलवी का प्रक्षेपण विफल रहने के कारण जीसैट 5 और जीसैट 5पी अभियान को बड़ा धक्का लगा था जिसके कारण ट्रांसपांडर की कमी आ गई थी।

Tuesday, July 12, 2011

अटलांटिस के पास कबाड़ की तलाश


अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा अंतरिक्ष में मलबे के एक टुकड़े की तलाश कर रही है जिसके शटल अटलांटिस के रास्ते में आने की आशंका जताई गई है। आशंका जताई गई है कि यह टुकड़ा मंगलवार तक अटलांटिस के निकट पहुंच कर उसके लिए खतरा बन सकता है। अटलांटिस के अंतरिक्ष स्टेशन से जुड़ने के बाद इसके वहां मौजूद होने की बात सामने आई थी। नासा के शटल कार्यक्रम के उप प्रबंधक लीरॉय केन ने कहा कि इस बात की पूरी कोशिश की जाएगी कि मलबे का टुकड़ा शटल और स्टेशन से टकराने की स्थिति में न आए। केन ने कहा, हम सामान्य प्रक्रिया ही अपनाएंगे। इस मामले को सामान्य तरीके से निपटा जाएगा। अभी हमारे पास शुरुआती जानकारी है। उन्होंने कहा कि अंतरिक्ष स्टेशन के रास्ते में पड़ी इस वस्तु के आकार के बारे में कोई जानकारी नहीं है, लेकिन आने वाले समय में और जानकारी आने की संभावना है। अटलांटिस नासा के शटल मिशन का आखिरी शटल है, जिसे अंतरिक्ष में भेजा गया है। अंतरिक्ष यान अटलांटिस चार अमेरिकी अंतरिक्ष यात्रियों को लेकर सफलतापूर्वक रविवार को अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र पर 12 दिन के मिशन पर पहुंचा है। इस मिशन के पूरा होने के बाद नासा के अंतरिक्ष कार्यक्रम के एक युग का अंत हो जाएगा। अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी के अनुसार, अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र के साथ अटलांटिस का 12वां मिलन न्यूजीलैंड के पूर्वी समुद्र तट से लगभग 386 किलोमीटर ऊपर दो यानों के परिभ्रमण के साथ पूरा हुआ। वहां पहले से मौजूद तीन अंतरिक्ष यात्रियों ने यान की पारम्परिक रूप से अगवानी की। अटलांटिस द्वारा अंतर्राष्ट्रीय अंतरिक्ष केंद्र तक की यात्रा साल्मोनेला बैक्टीरिया द्वारा पैदा होने वाले जठरांत्र रोगों के लिए टीके विकसित करने का एक प्रयोग है। अटलांटिस अपने साथ पर्याप्त मात्रा में कल-पुर्जे भी लेकर गया है, ताकि शटल कार्यक्रम बंद होने के बाद भी अंतरिक्ष केंद्र को सक्रिय रखा जा सके। इस ऐतिहासिक मिशन का नेतृत्व अमेरिकी नौसेना के सेवानिवृत्त कैप्टन क्रिस फग्र्यूसन कर रहे हैं। वह अंतरिक्ष में अपनी तीसरी उड़ान पर हैं। उनके अलावा पायलट डौग हर्ली अपने दूसरे अंतरिक्ष मिशन पर हैं। हर्ली नौसेना के कर्नल हैं।


पृष्ठ संख्या 14, दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), 12 जुलाई, 2011

सौर ऊर्जा से जगमगाएंगे देश भर के स्मारक


देशभर के स्मारकों को रात के समय जगमगाने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण (एएसआइ) सौर ऊर्जा (ग्रीन एनर्जी) को बढ़ावा देगा। इस योजना को अमली जामा पहनाने के लिए एएसआई गंभीरता से विचार कर रहा था। एएसआइ के दिल्ली मंडल में इस योजना को राष्ट्रमंडल खेलों तक पूरा किया जाना था। मगर किन्हीं कारणों से योजना पिछड़ गई थी। एएसआइ के दिल्ली मंडल के अधीक्षण पुरातत्वविद् डा. के के मोहम्मद कहते हैं कि ऊर्जा बचाने और प्रदूषण रोकने के लिए ग्रीन एनर्जी बेहतर विकल्प है। पिछले कुछ माह से योजना आगे नहीं बढ़ पा रही थी। अब फिर से इसे आगे बढ़ाने के लिए गंभीरता से प्रयास किया जा रहा है। बिजली की अत्यधिक खपत और भारी भरकम बिजली के बिलों के भुगतान को देखते एएसआइ ने कुछ साल पहले स्मारकों में सौर ऊर्जा का उत्पन्न कर उसका उपयोग करने की योजना बनाई थी। प्रयोग के तौर पर सबसे पहले कुतुबमीनार में सौर ऊर्जा सिस्टम लगाए जाने की बात कही गई थी। बाद में इसे कुतुबमीनार में न लगाकर जंतर मंतर स्मारक व सफदरजंग में लगाने का फैसला लिया गया। दोनों स्मारकों में सौर ऊर्जा पैनल लगाए गए हैं और बेहतर तरीके के काम कर रहे हैं। योजना को राष्ट्रमंडल खेलों से पहले पूरा करने का लक्ष्य था। मगर विभिन्न पचड़ों के चलते योजना में देरी होती गई। उस समय कुछ पुरातत्वविदें ने सवाल उठाए थे कि इनके लगाए जाने से स्मारकों की अपनी भव्यता प्रभावित होगी। एएसआइ का कहना है कि यह बिल्कुल गलत है कि पैनल लगा दिए जाने से स्मारकों की सुंदरता या भव्यता पर कोई असर पड़ेगा। डा. के.के. मोहम्मद कहते हैं कि एएसआइ के पास तमाम जगह हैं, बड़े पार्क हैं, सौर ऊर्जा पैनल पार्को के किसी भी भाग में लगाए जा सकते हैं। उन्होंने कहा कि एएसआइ सरकार की इस योजना को आगे बढ़ाने के लिए कृतसंकल्प है और इसे आगे बढ़ाया जाएगा


पृष्ठ संख्या 02, दैनिक जागरण (राष्ट्रीय संस्करण), 12 जुलाई, 2011

Wednesday, June 29, 2011

अलग तरह से बने थे सूरज और ग्रह


ग्रहों का अध्ययन करने वाले वैज्ञानिकों ने दावा किया है कि सूरज और सौरमंडल के ग्रहों का निर्माण अब तक की धारणाओं से अलग तरीके से हुआ होगा। कैलिफोर्निया विश्वविद्यालय के नेतृत्व में वैज्ञानिकों के एक दल ने सूरज और ग्रहों में ऑक्सीजन और नाइट्रोजन के मामले में उनके अलग होने का खुलासा किया है। हमारे सौर मंडल में यह दोनों गैसें प्रचुर मात्रा में हैं। नासा के 2004 जीनेसीस मिशन में प्राप्त हुए नमूनों का विश्लेषण करने वाले वैज्ञानिकों के मुताबिक यह अंतर बहुत कम है लेकिन इससे यह जानने में मदद मिल सकती है कि हमारा सौरमंडल कैसे बना था। अध्ययन दल के नेतृत्वकर्ता केविन मैककीगन ने कहा, हमने पाया कि पृथ्वी, चंद्रमा और मंगल ग्रह तथा उल्कापिंड जैसे क्षुद्रगहों के नमूनों में ओ-16 सूर्य की तुलना में कम मात्रा में है। उन्होंने कहा, आशय यह है कि हम सौर नीहारिका के उस पदार्थ को चिन्हित नहीं कर पाए जिससे सूरज बना है..यह कैसे और क्यों हुआ, इस बात का पता लगना अभी बाकी है। गौरतलब है कि पृथ्वी पर वायु ऑक्सीजन के तीन परमाणुओं के योग से बना है। इनमें मौजूद न्यूट्रॅानों की संख्या के आधार पर अंतर किया जाता है। सौरमंडल में करीब 100 फीसदी ऑक्सीजन परमाणु ओ-16 से निर्मित हैं लेकिन ओ-17 और ओ-18 नाम के ऑक्सीजन आइसोटोप बहुत कम मात्रा में उपलब्ध है। नमूनों के अध्ययन में वैज्ञानिकों ने पाया कि सूरज में ओ-16 की मौजूदगी का प्रतिशत पृथ्वी या अन्य ग्रहों की तुलना में थोड़ा अधिक है। अन्य आईसोटोप का प्रतिशत थोड़ा कम है। नाइट्रोजन तत्व के मामले में सूरज और ग्रहों के बीच अंतर होने का पता चला है। ऑक्सीजन की तरह नाइट्रोजन का भी एक आइसोटोप है जिसका नाम एन-14 है। इससे सौरमंडल में करीब 100 फीसदी परमाणु का निर्माण होता है लेकिन एन 15 बहुत कम मात्रा में है। इन नमूनों का अध्ययन करने वाले दल ने पाया कि पृथ्वी की तुलना में सूरज और बृहस्पति में मौजूद नाट्रोजन एन-14 से कुछ अधिक हैं लेकिन एन-15 से कुछ कम है। सूरज और बृहस्पति दोनों ही में नाइट्रोजन की समान मात्रा प्रतीत होती है। अध्ययन के मुताबिक, जहां तक ऑक्सीजन की बात है, पृथ्वी और शेष सौरमंडल नाइट्रोजन के मामले में बहुत अलग हैं.

दस नए ग्रहों का पता लगा


ऑक्सफोर्ड विश्वविद्यालय के वैज्ञानिकों सहित एक अंतरराष्ट्रीय दल ने एक नए तारामंडल के दस नए ग्रहों की खोज की है। यह ग्रह हमारे सौर मंडल के कुछ ग्रहों से मिलते-जुलते हैं। उनमें से एक उस तारे की परिक्रमा कर रहा है जो केवल कुछ लाख साल ही पुराना है। दो नैप्चयून के आकार के ग्रह हैं जबकि एक शनि जैसा है लेकिन उससे थोड़ा छोटा है। सभी ग्रह हमारी सौर प्रणाली, एक्सोप्लेनेट्स के बाहर हैं। इन ग्रहों की खोज कोरोटी अंतरिक्ष दूरबीन से की गई है जिसका संचालन फ्रांसीसी अंतरिक्ष एजेंसी सीएनईएस करती है। ऑक्सफोर्ड में भौतिकशास्त्र की डॉ. सुजेन अग्रेन के अनुसार अगर हम ग्रहों के निर्माण की स्थिति को समझना चाहते हैं तो हमें उन्हें उनके अस्तित्व के कुछ लाख साल में ढूंढना होगा। जो ग्रह नेपच्यून की तरह हैं उनके बारे में उनका कहना है कि पहला धरती से तीन गुना बड़ा है और तारे की परिक्रमा में 5.1 दिन लेता है। दूसरा धरती से 4.8 गुना बड़ा है और 11.8 दिन परिक्रमा में लेता है। इस लिहाज से यह ग्रह आकार में नेपच्यून के आकार के हैं लेकिन उससे कहीं अधिक गर्म हैं। इतने अच्छे उपकरणों के बावजूद हम उनके द्रव्यमान की ऊपरी सतह का ही पता लगा पाए हैं। इसके बावजूद यह पता लगाने के लिए यह काफी है कि उनका घनत्व बृहस्पति से अधिक नहीं है जिसका मतलब है कि उनमें अधिकतर गैस है। उसमें काफी मात्रा में पत्थर और बर्फ भी हो सकती है।

Wednesday, June 15, 2011

सिकुड़ रहा है मानव का मस्तिष्क!


इस धारणा के विपरीत कि मानव पहले से लंबा हुआ है, एक नए शोध में पता लगा है कि आदमी का कद छोटा हो रहा है और उसका मस्तिष्क भी सिकुड़ता जा रहा है। डेली मेल के अनुसार कैम्बि्रज विश्वविद्यालय के एक दल ने पाया कि शिकार के बाद मानव ने करीब 9000 साल पहले कृषि करना शुरू किया। इससे भोजन तो काफी मिलने लगा लेकिन खनिजों और विटामिन की कमी होने लगी जिससे मनुष्य के विकास पर असर पड़ा। चीन में शुरू के मानव चावल और बाजरे जैसे अनाज पर निर्भर रहते थे जिसमें नियासिन (विटामिन बी) का अभाव होता था जो वृद्धि के लिए जरूरी है। लेकिन कृषि के बढ़ने से कैसे मस्तिष्क सिकुड़ना शुरू हुआ यह पता नहीं है। करीब 20000 साल पहिले पुरूष का मस्तिष्क 1500 क्यूबिक सेंटीमीटर था और आधुनिक मानव का मस्तिष्क 1350 क्यूबिक सेंटीमीटर है। वैज्ञानिकों का कहना है कि इसका आशय यह नहीं है कि वह कम बुद्धिमत्तापूर्ण व्यक्ति बन गया है। बजाय इसके वह संसाधनों का बेहतर इस्तेमाल करना सीख गया है। मानव ने अपनी ऊंचाई की सीमा तय कर ली है और आधुनिक मानव अपने शिकारी पूर्वज की तुलना में दस प्रतिशत छोटा है। वैज्ञानिकों का कहना है कि कद काठी में यह कमी पिछले 10000 साल में आई है। इसके लिए उन्होंने कृषि, सीमित खानपान की आदत और शहरीकरण को जिम्मेदार ठहराया है जिसके कारण लोगों का स्वास्थ्य प्रभावित हुआ है और बीमारियां बढ़ी हैं। अफ्रीका, यूरोप और एशिया से मिले मानव अवशेषों के जीवाश्म के आधार पर यह नतीजा सामने आया है। अखबार ने मानव विकास मामले के विशेषज्ञ डॉ. मार्टा लाहर के हवाले से कहा कि 200000 साल पहले इथोपिया में इंसान आज की तुलना में अधिक बड़ा और अधिक हृष्ट-पुष्ट था। इजरायल की गुफाओं से मिले 120000 से 100000 साल पहले के जीवाश्म बताते हैं कि तब का इंसान आज की तुलना में अधिक लंबा और हृष्ट-पुष्ट था।


fएक और छलांग, पृथ्वी ने छुआ आसमान


भारत ने गुरुवार को मिसाइल प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में एक और कामयाबी हासिल कर ली। चांदीपुर समुद्र तट के समीप आइटीआर (अंतरिम परीक्षण परिसर) के एलसी-3 (लांचिंग सेंटर) से सतह से सतह पर मार करने वाली पृथ्वी-2 मिसाइल का गुरुवार सुबह 9:07 बजे सफल परीक्षण किया गया। मिसाइल ने करीब 10 मीटर की अत्यधिक सटीकता के साथ लक्ष्य साध लिया। पूर्ण रूप से स्वदेशी ज्ञान कौशल से निर्मित यह मिसाइल परमाणु संपन्न पृथ्वी-2 को सैन्य बलों में पहले ही शामिल किया जा चुका है। दो इंजन वाले पृथ्वी-2 मिसाइल की लंबाई 9 मीटर तथा चौड़ाई एक मीटर और वजन 4600 किलोग्राम है। पृथ्वी-2 मिसाइल का यह आठ महीने के भीतर चौथा सफल परीक्षण था। इस मिसाइल की मारक क्षमता 250 से 350 किमी के बीच है। यह 500 से 1000 किलोग्राम वजन का आयुध ले जाने में सक्षम है। नौवाहन प्रणालियों से सुसज्जित यह मिसाइल शत्रु के मिसाइल को चकमा दे सकती है। यह तरल व ठोस दोनों प्रकार के इंधन से संचालित हो सकती है। यह मिसाइल अपने साथ परंपरागत और परमाणु पेलोड दोनों को ही ले जाने में सक्षम है। रक्षा अनुसंधान और विकास संगठन (डीआरडीओ) के प्रवक्ता ने कहा, मिसाइल को यहां से निकट चांदीपुर स्थित समेकित परीक्षण रेंज से सुबह 9:07 बजे दागा गया। ऐसा सशस्त्र बलों के नियमित प्रशिक्षण अभ्यास के तहत किया गया। रक्षा अधिकारी ने कहा कि आज के प्रायोगिक परीक्षण के जरिए मिशन के सभी उद्देश्य हासिल हो गए हैं। पूर्व में किए गए परीक्षणों के दौरान प्राप्त नियमित परिणामों के साथ ही यह मिसाइल सटीकता के उस स्तर पर पहुंच चुकी है जहां कोई चूक होने की आशंका न के बराबर होती है। उन्होंने बताया कि पृथ्वी-2 में किसी भी एंटी-बैलिस्टिक मिसाइल को झांसा देकर निशाना साधने की क्षमता है। वर्ष 2008 में जब इस पर परीक्षण किया गया तब यह 483 सेकेंड की अवधि में 43.5 किलोमीटर की शीर्ष ऊंचाई पर पहुंचने में सफल रही थी। सशस्त्र बलों के परिचालन अभ्यासों के तहत दो पृथ्वी-2 मिसाइलों को 12 अक्टूबर 2009 को कुछ ही मिनटों के अंतराल में एक-एक कर दागा गया था। इन मिसाइलों ने चांदीपुर स्थित समेकित परीक्षण रेंज से 350 किमी की दूरी पर स्थित दो विभिन्न लक्ष्यों को निशाना बनाया। इस मिसाइल का जब साल्वो मोड में 27 मार्च और 18 जून 2010 को चांदीपुर से परीक्षण किया गया तब इसने एक बार फिर अपनी सटीकता साबित की। सूत्रों ने कहा कि आज के प्रायोगिक परीक्षण के दौरान पूरे उड़ान पथ पर आधुनिक राडार और इलेक्ट्रो-ऑप्टिक टेलीमेट्री स्टेशनों के जरिए नजर रखी गई। परीक्षण के बाद के विश्लेषण के लिए बंगाल की खाड़ी में मिसाइल के प्रभाव क्षेत्र में नौसना के एक जहाज को तैनात किया गया था। प्रायोगिक परीक्षण के दौरान डीआरडीओ प्रमुख वीके सारस्वत, कार्यक्रम निदेशक वीएलएन राव सहित कई वरिष्ठ अधिकारी मौजूद थे.


सूरज की लपटें बिगाड़ेंगी धरती पर संचार


अंतरिक्ष एजेंसी नासा की वेधशाला को सूरज की असाधारण लपटें नजर आईं हैं जो अगले कुछ दिनों में धरती पर उपग्रहीय संचार और ऊर्जा में बाधा डाल सकती है। इससे दो दिन बाद धरती पर आ सकता है मध्यम चुंबकीय तूफान। राष्ट्रीय मौसम सेवा के मुताबिक, सूरज में एक भीषण धमाका हुआ जिससे वहां विकिरण का तूफान आया। वर्ष 2006 के बाद ऐसा तूफान वहां नहीं देखा गया था। अधिकारियों को उम्मीद है कि आग की लपटें आज जरा नरम पड़ेंगी। वैज्ञानिक बिल मर्टाग ने कहा, यह जरा नाटकीय है। उन्होंने बताया कि मध्यम आकार की एम-2 लपटों को अंतरराष्ट्रीय समयानुसार पांच बज कर 41 मिनट पर आगे बढ़ता पाया गया। मर्टाग ने कहा, हमने शुरूआती लपटों को देखा। वे उतनी तेज नहीं थीं लेकिन धमाका बहुत तेज था। हमने उसमें विकिरण को भी पाया। हालांकि नासा ने कहा है कि पृथ्वी पर इस घटना का कम प्रभाव पड़ने की आशंका है। मर्टाग ने कहा, एक दो दिनों में हम उसका धरती पर असर पड़ने की उम्मीद कर रहे हैं और इससे यहां भू-चुंबकीय तूफान भी आ सकता है। उन्होंने कहा, इससे बहुत बड़ा नहीं बल्कि मध्यम तूफान पैदा हो सकता है। इससे धरती के गर्भ में हलचल होने की आशंका है। इस हलचल से वातावरण में कई तरह के बदलाव देखने को मिलते हैं। नासा के बयान के अनुसार छोटे कणों के बड़े बादल बनने की उम्मीद है जिससे सौर क्षेत्र का आधे से ज्यादा हिस्सा ढंक जाएगा। मुर्ताघ का कहना है कि अंतरिक्ष विज्ञानी इस बात का अध्ययन कर रहे हैं कि सूर्य और धरती के बीच 150 मिलियन किलोमीटर की दूरी में चुंबकीय क्षेत्रों का कोई टकराव तो नहीं होगा। अब देखना यह है कि सूर्य से निकली गैस और चुंबकीय क्षेत्र कहीं पृथ्वी पर तो निशाना नहीं लगा रहा। माना जा रहा है कि एक-दो दिन में कोई तीव्र या मध्यम स्तर का सौर तूफान तो नहीं आ रहा।


Tuesday, June 14, 2011

परमाणु रिएक्टरों का रक्षक बनी गामा डोज लॉगर


भारतीय वैज्ञानिकों ने परमाणु रिएक्टरों और उनसे जुड़ी ईधन सुविधाओं के आस-पास के पर्यावरण में फैलने वाले विकिरण पर लगातार निगरानी रखने के लिए पहली बार स्वदेशी ऑनलाइन तकनीक विकसित की है। यह पर्यावरण में हो रहे हर प्रकार के परमाणु विकिरण पर नजर रखती है। इसे गामा डोज लॉगर तकनीक कहा जाता है। इंदिरा गांधी परमाणु अनुसंधान केंद्र (आइजीसीएआर) के रेडियोलॉजी सुरक्षा और पर्यावरण समूह (आरएसईजी) के अधिकारी डॉ.बी.वेंकटरमण ने बताया कि इस तकनीक से सतत निगरानी द्वारा किसी अप्रिय घटना के होने से पहले अधिक रिसाव को तत्काल पकड़ा जा सकता है। यह प्रणाली आपातकालीन स्थिति के लिए भी उपयोगी है। उन्होंने बताया कि गामा डोज लॉगर प्रणाली सौर ऊर्जा से चार्ज हो रहीं बैटरियों पर काम करती है, इसलिए यह वातावरण की दृष्टि से भी अनुकूल है। तकनीक के लोकल एरिया नेटवर्क के जरिए हर वक्त रेडियोएक्टिव पदार्थो के उत्सर्जन और उसके बाद हो रही रासायनिक प्रतिक्रिया की वास्तविक स्थिति का भी पता लगाया जा सकता है। बेहतर ढंग से समझने के लिए इसमें ग्राफिकल डिस्प्ले भी देखा जा सकता है। उन्होंने कहा कि स्वेदश विकसित यह ऑनलाइन प्रणाली आयातित प्रणालियों की तुलना में कम से कम डेढ़ लाख रुपये सस्ती है और इसमें अतिरिक्त विशेषताएं भी हैं। उन्होंने कहा, बड़ी बात इस तरह की प्रणाली को स्वदेशी तौर पर विकसित करना है जिसका मतलब है उपलब्धता में विस्तार, आयात पर कम निर्भरता और सबसे अधिक महत्वपूर्ण है सुलभ उपयोगिता और देखभाल। आइजीसीएआर की ताजा विज्ञप्ति में वरिष्ठ वैज्ञानिक जी. सूर्य प्रकाश ने लिखा है, द रेडियोलॉजिकल सेफ्टी डिवीजन (आरएसडर) ने गामा डोज लॉगर तकनीक तैयार की है। इसमें अत्याधुनिक गामा ट्रेसर की क्षमताओं के साथ लैन के माध्यम से ऑनलाइन डाटा भेजने, संचार टॉवरों, डाटा सुरक्षा, किफायत और विस्तार क्षमता की जरूरत जैसी आवश्यकताओं को पूरा करने की क्षमता है।कलपक्कम परमाणु संयंत्र में चार जगहों पर सफलतापूर्वक इसे लगा दिया गया है। यह पिछले छह महीने से सुगमता और संतोषजनक तरीके से काम कर रही है।


Wednesday, June 1, 2011

चांद पर मौजूद है पृथ्वी जितना पानी : अध्ययन


चांद पर पहले की सोच से 100 गुना ज्यादा पानी मौजूद हो सकता है। नए अध्ययन में दावा किया गया है कि इसकी मात्रा इतनी हो सकती है जितनी पृथ्वी पर है। वैज्ञानिकों ने हाल ही में चांद पर पानी को खोजा था। लंबे समय से यह इलाका धूल भरा और सूखा माना जाता रहा है। मगर 1972 में अपोलो 17 द्वारा लाए गए चांद की चट्टानों के नमूनों का विश्लेषण करने के बाद अब यह निष्कर्ष निकाला गया है। डेली मेल की खबर के अनुसार, केस वेस्टर्न रिजर्व यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने इन ज्वालामुखीय नमूनों का विश्लेषण किया है। इन वैज्ञानिकों का मानना है कि चांद पर जितना जल सोचा जाता है उससे 100 गुना ज्यादा हो सकता है। यहां तक की अगर चांद पर जल की पूरी मात्रा को नापा जाए तो यह पृथ्वी के ऊपरी मेंटल से भी ज्यादा हो सकती है। ऊपरी मेंटर आधी पिघली चट्टानों की वह सतह होती है जो धरती की ऊपरी सतह के एकदम नीचे मौजूद होती है। अगर ऐसा ही है तो यह अध्ययन लंबे समय से चली आ रही चांद के निर्माण की थ्योरी को चुनौती देता है। अधिकतर विशेषज्ञ मानते हैं कि पृथ्वी पर एक भीषण टक्कर ने इसके एक हिस्से को अंतरिक्ष में उछाल दिया जो चांद बन गया। मगर इस टकराव से पैदा हुए बल के कारण चांद का पानी वाष्प बनकर उड़ गया। अब चांद की भीतरी सतह में पानी की अत्यधिक मात्रा के पता लगने से इस विचार पर संदेह पैदा हो गया है। यह अध्ययन जर्नल साइंस में प्रकाशित किया गया है। शोध की अगुवाई करने वाले प्रोफेसर जेम्स वान ओरमैन ने कहा, ये नमूने हमें अब तक का सर्वश्रेष्ठ अंदाजा लगाने में मदद करते हैं कि चांद की भीतरी सतह में कितना पानी मौजूद है। उन्होंने कहा, चांद की भीतरी सतह काफी हद तक पृथ्वी की भीतरी सतह जैसी ही लगती है। जितना हम पानी की प्रचूरता के बारे में जानते हैं। नारंगी रंग के मनके गहराई से तब बाहर आए जब लंबे समय पूर्व चांद पर ज्वालामुखी फटे, तब तक चंद्रमा भूगर्भीय रूप से सक्रिय हुआ करता था.


Thursday, May 19, 2011

टाइटन पर स्थित मिथेन की झील में पहंुचेगी रोबोट-नाव


ब्रिटिश वैज्ञानिक अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के साथ मिल कर एक ऐसी मशीनी नाव बनाने की योजना बना रहे हैं जो शनि ग्रह के उपग्रह टाइटन पर स्थित मिथेन के भंडार में जीवन के निशान तलाशेगी। दी ऑब्जर्बर की खबर के अनुसार ओपेन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन जार्नेकी की अगुवाई में बने इस दल का कहना है कि इनकी यह नाव टाइटन के सतह पर स्थित मिथेन और इथेन के लीगिया मेर नाम के भंडार में उतरेगी। टाइटन मेर एक्सप्लोरर (टाइम) नाम के इस अभियान के जरिए कई महीनों तक टाइटन की सतह पर पड़ने वाली हवाओं और दबाव का अध्ययन किया जाएगा। टाइटन हमारे सौरमंडल का एकमात्र ऐसा उपग्रह है जिसके वातावरण में नाइट्रोजन और मिथेन गैसों की मोटी चादर मौजूद है। प्रो. जार्नेकी ने बताया, टाइटन पर तरंगें बड़ी होने के बावजूद महासागरों की तरंगों से काफी छोटी होती हैं। इस कारण सौरमंडल में यहां जाना काफी आसान है। एक दिक्कत बस यह है कि वहां का तापमान शून्य से 180 डिग्री सेल्सियस नीचे होता है। उन्होंने बताया कि टाइटन पर अत्यधिक ठंड के कारण ही धरती पर गैस के रूप में मौजूद मिथेन वहां द्रव्य के रूप में पाई जाती है। टाइटन अकेला ऐसा चंद्रमा है जिसका अपना वातावरण है और वह नाइट्रोजन और मीथेन का बना हुआ है। इसीलिए धरती के अलावा किसी समुद्र में यह अभियान अपनी तरह का पहला होगा। जिस तरह धरती पर पानी गैस, तरल व ठोस तीनों ही रूपों में पाया जाता है, ठीक उसी तरह टाइटन पर मीथेन तीनों रूपों में मौजूद है। मीथेन टाइटन की सतह और वातावरण के बीच एक चक्र के रूप में संतुलन का काम भी करता है जिस तरह धरती पर पानी करता है। वह वहां के वातावरण को बदलकर प्रभावित करता है। सूर्य से आने वाले अल्ट्रवायलेट किरणें मीथेन से रासायनिक क्रिया करके जटिल तरल कार्बन बनाती हैं जो सतह पर बहने लगता है। इससे टाइटन पर पेट्रो केमिकल्स की वर्षा होती है। इन पेट्रो केमिकल्स पदार्थो से भरी नदिया आसपास सबकुछ बहाकर झीलों का निर्माण करती हैं। टाइम प्रोब को अंतरिक्ष यान के जरिए सौरमंडल की अरबों मील की यात्रा के बाद टाइटन पर छोड़ दिया जाएगा।


धरती के पास से जाते हैं ब्लैकहोल


ग्रहों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि हर रोज कई छोटे आकार के ब्लैकहोल बिना नुकसान पहुंचाए धरती के पास से गुजर जाते हैं। आमतौर पर माना जाता है कि ब्लैकहोल बहुत विशाल और विनाशकारी होते हैं लेकिन नई खोज से साफ हो गया है कि नन्हें ब्लैकहोलों से पृथ्वी को खतरा नहीं है। प्रतिवर्ष धरती के पास से शांतिपूर्वक गुजर जाने वाले ब्लैक होल अक्सर अपनी कक्षा में आने वाली वस्तुओं को ही अपने में आत्मसात करते हैं। जिसतरह किसी परमाणु के नाभिकीय को न छेड़ते हुए वह इलेक्ट्रान के माफिक मंडराते रहते हैं। अध्ययन के मुताबिक नन्हें ब्लैक होल इतने निष्प्रभावी होते हैं कि वह पृथ्वी पर रह भी सकते हैं और उसे बिना कोई हानि पहुंचाए उसके पास से गुजर भी जाते हैं। बड़े ब्लैक होल अपने आसपास तो क्या धुरी पर आने वाले ग्रहों तक को निगल जाते हैं जबकि नन्हें ब्लैक होल गुरुत्वाकर्षण बल बहुत सीमित होता है। कैलिफोर्निया के हेल्सियन मॉलिक्यूलर के आरोन पी. वैनडेवेंडर और न्यूमेक्सिको के सांदिया राष्ट्रीय प्रयोगशाला के जे पेस वैनडेवेंडर ने इस शोध दल का नेतृत्व किया है। डेलीमेल की खबर के अनुसार शोध में कहा गया है कि यह छोटे ब्लैकहोल वस्तुओं को कक्षा में स्थापित किए रहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर कक्षा में मौजूद रहते हैं। गौरतलब है कि सामान्य तौर पर बड़े आकार के ब्लैकहोल अपने पास से गुजरने वाली रौशनी समेत हर वस्तु को निगल जाते हैं। इनका निर्माण विशाल तारों के आपस में टकराने से होता है। वैज्ञानिकों ने इस प्रक्रिया के सिद्धांत को परमाणु के समतुल्य गुरुत्वाकर्षण का नाम दिया है। एआरएक्सआईवी. ओआरजी वेबसाइट पर प्रसारित किए गए इस शोध में वैज्ञानिकों ने कहा है, इस तरह के ब्लैकहोल को ढ़ूंढ़ना मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं। वैनडेवेंडर्स के अनुसार उनमें एक अणु के जितना गुरुत्वाकर्षण बल होता है। उनकी गणना के अनुसार लाखों किलोग्राम के नन्हें ब्लैकहोल प्रतिवर्ष धरती के पास से गुजर जाते हैं। लेकिन वह धरती का कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं।