ब्रिटिश वैज्ञानिक अमेरिकी अंतरिक्ष एजेंसी नासा के साथ मिल कर एक ऐसी मशीनी नाव बनाने की योजना बना रहे हैं जो शनि ग्रह के उपग्रह टाइटन पर स्थित मिथेन के भंडार में जीवन के निशान तलाशेगी। दी ऑब्जर्बर की खबर के अनुसार ओपेन विश्वविद्यालय के प्रोफेसर जॉन जार्नेकी की अगुवाई में बने इस दल का कहना है कि इनकी यह नाव टाइटन के सतह पर स्थित मिथेन और इथेन के लीगिया मेर नाम के भंडार में उतरेगी। टाइटन मेर एक्सप्लोरर (टाइम) नाम के इस अभियान के जरिए कई महीनों तक टाइटन की सतह पर पड़ने वाली हवाओं और दबाव का अध्ययन किया जाएगा। टाइटन हमारे सौरमंडल का एकमात्र ऐसा उपग्रह है जिसके वातावरण में नाइट्रोजन और मिथेन गैसों की मोटी चादर मौजूद है। प्रो. जार्नेकी ने बताया, टाइटन पर तरंगें बड़ी होने के बावजूद महासागरों की तरंगों से काफी छोटी होती हैं। इस कारण सौरमंडल में यहां जाना काफी आसान है। एक दिक्कत बस यह है कि वहां का तापमान शून्य से 180 डिग्री सेल्सियस नीचे होता है। उन्होंने बताया कि टाइटन पर अत्यधिक ठंड के कारण ही धरती पर गैस के रूप में मौजूद मिथेन वहां द्रव्य के रूप में पाई जाती है। टाइटन अकेला ऐसा चंद्रमा है जिसका अपना वातावरण है और वह नाइट्रोजन और मीथेन का बना हुआ है। इसीलिए धरती के अलावा किसी समुद्र में यह अभियान अपनी तरह का पहला होगा। जिस तरह धरती पर पानी गैस, तरल व ठोस तीनों ही रूपों में पाया जाता है, ठीक उसी तरह टाइटन पर मीथेन तीनों रूपों में मौजूद है। मीथेन टाइटन की सतह और वातावरण के बीच एक चक्र के रूप में संतुलन का काम भी करता है जिस तरह धरती पर पानी करता है। वह वहां के वातावरण को बदलकर प्रभावित करता है। सूर्य से आने वाले अल्ट्रवायलेट किरणें मीथेन से रासायनिक क्रिया करके जटिल तरल कार्बन बनाती हैं जो सतह पर बहने लगता है। इससे टाइटन पर पेट्रो केमिकल्स की वर्षा होती है। इन पेट्रो केमिकल्स पदार्थो से भरी नदिया आसपास सबकुछ बहाकर झीलों का निर्माण करती हैं। टाइम प्रोब को अंतरिक्ष यान के जरिए सौरमंडल की अरबों मील की यात्रा के बाद टाइटन पर छोड़ दिया जाएगा।
Thursday, May 19, 2011
धरती के पास से जाते हैं ब्लैकहोल
ग्रहों पर शोध करने वाले वैज्ञानिकों का कहना है कि हर रोज कई छोटे आकार के ब्लैकहोल बिना नुकसान पहुंचाए धरती के पास से गुजर जाते हैं। आमतौर पर माना जाता है कि ब्लैकहोल बहुत विशाल और विनाशकारी होते हैं लेकिन नई खोज से साफ हो गया है कि नन्हें ब्लैकहोलों से पृथ्वी को खतरा नहीं है। प्रतिवर्ष धरती के पास से शांतिपूर्वक गुजर जाने वाले ब्लैक होल अक्सर अपनी कक्षा में आने वाली वस्तुओं को ही अपने में आत्मसात करते हैं। जिसतरह किसी परमाणु के नाभिकीय को न छेड़ते हुए वह इलेक्ट्रान के माफिक मंडराते रहते हैं। अध्ययन के मुताबिक नन्हें ब्लैक होल इतने निष्प्रभावी होते हैं कि वह पृथ्वी पर रह भी सकते हैं और उसे बिना कोई हानि पहुंचाए उसके पास से गुजर भी जाते हैं। बड़े ब्लैक होल अपने आसपास तो क्या धुरी पर आने वाले ग्रहों तक को निगल जाते हैं जबकि नन्हें ब्लैक होल गुरुत्वाकर्षण बल बहुत सीमित होता है। कैलिफोर्निया के हेल्सियन मॉलिक्यूलर के आरोन पी. वैनडेवेंडर और न्यूमेक्सिको के सांदिया राष्ट्रीय प्रयोगशाला के जे पेस वैनडेवेंडर ने इस शोध दल का नेतृत्व किया है। डेलीमेल की खबर के अनुसार शोध में कहा गया है कि यह छोटे ब्लैकहोल वस्तुओं को कक्षा में स्थापित किए रहते हैं, ठीक उसी तरह जैसे इलेक्ट्रॉन नाभिक के चारों ओर कक्षा में मौजूद रहते हैं। गौरतलब है कि सामान्य तौर पर बड़े आकार के ब्लैकहोल अपने पास से गुजरने वाली रौशनी समेत हर वस्तु को निगल जाते हैं। इनका निर्माण विशाल तारों के आपस में टकराने से होता है। वैज्ञानिकों ने इस प्रक्रिया के सिद्धांत को परमाणु के समतुल्य गुरुत्वाकर्षण का नाम दिया है। एआरएक्सआईवी. ओआरजी वेबसाइट पर प्रसारित किए गए इस शोध में वैज्ञानिकों ने कहा है, इस तरह के ब्लैकहोल को ढ़ूंढ़ना मुश्किल तो है पर नामुमकिन नहीं। वैनडेवेंडर्स के अनुसार उनमें एक अणु के जितना गुरुत्वाकर्षण बल होता है। उनकी गणना के अनुसार लाखों किलोग्राम के नन्हें ब्लैकहोल प्रतिवर्ष धरती के पास से गुजर जाते हैं। लेकिन वह धरती का कुछ नहीं बिगाड़ सकते हैं।
Sunday, May 15, 2011
एलियंस के लिए 86 ग्रहों पर नजर
अंतरिक्ष के प्राणियों की खोज के लिए वैज्ञानिक पिछले कई दशकों से प्रयास कर रहे हैं। मगर आज तक उन्हें इस दिशा में कोई खास सफलता हासिल नहीं हुई है। इसी कड़ी में अब एक और काफी बड़े स्तर पर एलियंस को ढूंढ़ने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने 86 ग्रहों को चुना है जो पृथ्वी जैसे ही दिखते हैं। इन ग्रहों पर दिन-रात नजर रखने के लिए उन्होंने पश्चिमी वर्जीनिया के ग्रामीण इलाके में एक विशाल रेडियो दूरबीन (टेलीस्कोप) लगाई है। इस दूरबीन ने अपना काम शुरू भी कर दिया है। यह 86 ग्रह नासा के केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन द्वारा चुने गए संभावित 1235 ग्रहों की सूची में से लिए गए हैं। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के स्नातक छात्र एंड्रयू सिमोन ने कहा, वास्तव में यह संभव नहीं है की इन सभी ग्रहों का वातावरण रहने योग्य ही हो लेकिन ये एलियंस की खोज के लिए बेहतर जगहें हैं। यह अभियान एसईटीआइ परियोजना का हिस्सा है, जिसका मतलब सर्च फॉर एक्ट्रा टेरेस्ट्रीयल इंटेलीजेंस है। यह परियोजना 80वें दशक के मध्य में शुरू की गई थी। पिछले माह एसईटीआइ इंस्टीट्यूट ने घोषणा की थी कि वह अपने प्रयासों के मुख्य हिस्से को बंद कर रहा है। इसका कारण बजट में पांच मिलियन डॉलर (करीब 22.5 करोड़ रुपये) की कमी होना था। उनकी इस 50 मिलियन डॉलर (करीब 2.25 अरब रुपये) लागत वाली परियोजना में 42 टेलीस्कोप लगाए गए थे। खगोल विज्ञानियों को उम्मीद है कि ग्रीन बैंक टेलीस्कोप ग्रहों पर जीवन संबंधी जानकारियां जुटाने में मददगार साबित होगा। सिमोन ने कहा कि हम फ्रीक्वेंसी और संकेतों की वृहद रेंज को देखेंगे जो इससे पहले भी संभव हो चुकी है। उन्होंने कहा कि यह टेलीस्कोप प्रति सेकेंड एक गीगाबाइट डाटा के करीब रिकॉर्ड कर सकता है। 77 लाख किलो वजनी यह टेलीस्कोप वर्ष 2000 में काम करने के लिए तैयार हो चुका था और फिलहाल नेशनल रेडिया एस्ट्रोनॉमी ऑब्जरवेटरी के अभियान का हिस्सा है। भौतिकविद् डेन वर्टिमर ने कहा, हमने ऐसे ग्रह चुने हैं जहां का तापमान अच्छा है, जीरो डिग्री से 100 डिग्री सेल्सियस के बीच। इसलिए इनकी बहुत हद तक आश्रय स्थल होने की संभावना है। वर्टिमर प्यूर्टो रिको में तीन दशक लंबी एसईटीआइ परियोजना की अगुवाई कर रहे हैं। प्यूर्टो रिको दुनिया के सबसे बड़े रेडियो टेलीस्कोप एरेसिबो का ठिकाना भी है। वर्टिमर ने कहा, एरेसिबो हालांकि उत्तरी अंतरिक्ष के समान इलाके की निगरानी नहीं, जो ग्रीन बैंक टेलीस्कोप कर सकता है। उन्होंने कहा, एरेसिबो के जरिए हम सूर्य जैसे तारों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि उसके आसपास ऐसे ग्रह हो सकते हैं जो बौद्धिक संकेतों का संचार करते हों। मगर हमारे पास पहले ऐसी कोई सूची नहीं थी। ग्रीन बैंक टेलीस्कोप फ्रीक्वेंसी की रेंज को एरेसिबो के मुकाबले 300 गुना तक स्कैन कर सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि यह एक दिन में उतना डाटा एकत्रित कर सकता है जितना एरिसिबो एक साल में करेगा। इस परियोजना के पूरा होने में एक साल का समय लगने की उम्मीद जताई गई है।
Tuesday, May 3, 2011
धरती से टकराएगा सौर तूफान!
यह कोई माया कलेंडर की भविष्यवाणी नहीं है, बल्कि ब्रह्मांड वैज्ञानिकों की चेतावनी है कि वर्ष 2012 में भयंकर सौर तूफान के धरती से टकराने के कारण भारी धन और जन की क्षति हो सकती है। पिछले वर्ष अमेरिकी खगोलविदों ने 2012 में धरती से सौर तूफान के टकराने की भविष्यवाणी की थी। अब उनका आकलन है कि अभी तक इसे जितना ताकतवर समझा जा रहा था, यह उससे कहीं अधिक ज्यादा होगा। पृथ्वी से यह दस करोड़ हाइड्रोजन बमों की शक्ति से टकराएगा। इस साल के शुरुआत में इसी तूफान के चलते अंतरिक्ष में अद्भुत रोशनियां दिखाई दी थी। नासा ने चेतावनी दी है कि जो चकाचौंध उन्होंने देखी है, वह अंतरिक्ष में बन रहे भीषण सौर तूफान का एक संकेत मात्र है। इस सौर तूफान में इतनी शक्ति होगी कि यह पूरी धरती की विद्युत व्यवस्था को ठप कर देगा। इस बात के खंडन के बावजूद नासा 2006 से इस तूफान पर नजर रख रहा है। पिछले माह आई नासा की रिपोर्ट में यह दावा किया गया था कि यह तूफान 2012 में धरती से टकरा सकता है। 1859 और 1921 में भी इसी तरह के तूफान ने दुनिया भर में हलचल मचा दी थी और बड़े पैमाने पर टेलीग्राफ तारों के क्षतिग्रस्त होने का कारण बना था। 2012 में आने वाले सौर तूफान के इससे भी ज्यादा विध्वंसक होने की आशंका जताई गई है। खगोल विज्ञान के प्रोफेसर डेव रेनेक ने इस बारे में कहा, सौर खगोलविदों के बीच आम राय यह है कि आने वाला यह सौर तूफान (2012 या 2013 तक आने की आशंका) पिछले 100 सालों में सबसे ज्यादा अशांति लाने वाला सिद्ध होगा। सूर्य अब अपनी सुसुप्त अवस्था से धीरे-धीरे जाग रहा है। उसके पूरी तरह से जागने पर भयंकर सौर लपटें उठेंगी, जो तूफान बनकर धरती पर भयंकर तबाही मचाएंगी। यह तूफान सभी कृत्रिम उपग्रहों को नष्ट कर देगा, जिससे पूरी संचार व्यवस्था और हवाई सेवाएं ठप हो जाएंगी। अंतरिक्ष वैज्ञानिकों ने वाशिंगटन में अमेरिकन एसोसिएट फॉर द एडवांसमेंट ऑफ साइंस की सालाना बैठक में इस मुद्दे पर विस्तृत विचार विमर्श किया है। इससे पहले 1972 में भी सोलर तूफान आया था, जिसने अमेरिका के इलिनॉयस में टेलीफोन संचार व्यवस्था में गड़बड़ी पैदा की थी। कनाडा के क्यूबेक में 1989 में इस वजह से पूरे शहर की बिजली गुल हो गई थी। इन दोनों ही घटनाओं का असर सीमित स्थान पर दिखा था। पर 2012-13 में आने वाले सोलर तूफान पूरी दुनिया को चपेट में ले सकता है। नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार अगले तीन वर्षो के दौरान उसकी सतह पर उठने वाली सौर लपटों का प्रभाव हमारी धरती पर भी पड़ेगा। इसकी शुरुआत 1 अगस्त 2010 से हो चुकी है और यह सौर सक्रियता 2013-14 तक जारी रहेगी। इस वर्ष की 14 फरवरी की रात में सूरज की सतह पर हुए विस्फोट से चीन का रेडियो संचार बाधित हो गया था। हालांकि यह पिछले विस्फोटों के मुकाबले बहुत छोटा था। पर 2013-14 तक सूरज की सतह पर कई विस्फोट होंगे, जिससे पूरी धरती की जलवायु और मौसम भी बदल सकता है। वैज्ञानिकों का कहना है कि आने वाले दिनों में हमारी धरती बड़े सौर तूफानों से निकली तरंगों से प्रभावित हो सकती है। सूर्य के कोरोना से निकलने वाली अस्वाभाविक चुंबकीय लपटों से विद्युत आवेशित बादल हमारी पृथ्वी की ओर बढ़ने लगे हंै। वैज्ञानिकों ने धरती पर सौर-सुनामी आने की चेतावनी दी है। नासा के सोलर डायनोमिक्स आब्जर्वेटरी (एसडीओ) सहित कई उपग्रहों ने 1 अगस्त 2010 को सूर्य के सन-स्पाट 1092 से छोटी सौर लपटें रिकार्ड की हैं, जो आकार में पृथ्वी के बराबर हैं। उपग्रहों ने ठंडी गैसों के बड़े-बड़े तंतु भी रिकॉर्ड किए हैं, जो सूर्य के उत्तरी गोलार्द्ध में फैले हुए हैं। अंतरिक्ष में इसमें धमाका भी हुआ है। न्यू साइंटिस्ट ने खबर दी है कि यह सूर्य के कोरोना का हिस्सा है। इस धमाके को कोरोनल विस्फोट कहा जा रहा है। यह अविश्वसनीय रूप से नौ करोड़ 30 लाख मील तक फैल चुकी है। यह सौर सुनामी पृथ्वी की ओर बहुत तेजी से बढ़ रही है। इसमें कहा गया है कि जब ये उच्छृंखल बादल टकराएंगे तो वे कभी भी धु्रव के ऊपर आकाश में तेज रोशनी उत्पन्न कर सकते हैं और ये उपग्रहों के लिए खतरा उत्पन्न कर सकते हैं। हालांकि गंभीर रूप से खतरा नहीं है, लेकिन सूर्य की सतह पर जब कोई बड़ी सौर लपट उठेगी तो उसका प्रभाव धरती पर पड़ सकता है। सूरज की सतह पर उठने वाली विशाल सौर लपटें या ज्वालाएं हमारी धरती के वातावरण को भी प्रभावित करेंगी। नासा के वैज्ञानिकों के अनुसार, अगले तीन वर्षो में सौर गतिविधियां इतनी बढ़ जाएंगी कि हम धरतीवासियों के लिए विनाशकारी साबित होंगी। अभी से इस प्राकृतिक आपदा की काट खोजी जाने लगी है। पिछले सप्ताह दुनिया भर के वैज्ञानिकों ने इन विनाशकारी लपटों से धरती को बचाने के लिए वाशिंगटन में आयोजित अंतरिक्ष सम्मेलन में विचार-विमर्श किया है। इस समस्या के आकलन के लिए नासा सोलर डायनामिक्स आब्जरवेटरी सहित दर्जनों उपग्रहों का प्रयोग कर रहा है। दो साल पहले नेशनल अकेडमी ऑफ साइंसेज द्वारा इस समस्या का गंभीरता से अध्ययन किया गया। इस रिपोर्ट में पहली बार इसके सामाजिक और आर्थिक प्रभावों का उल्लेख किया गया था। नासा के अनुसार, हर 22 साल बाद सूरज की चुंबकीय ऊर्जा का चक्र शीर्ष पर होता है। इसके साथ ही हर 11 साल की अवधि में इससे निकलने वाली लपटों की संख्या सर्वाधिक होती है। सूरज के इन दोनों विनाशकारी अवगुणों वाली अवधि साल 2013 में एक साथ मिल रही है। इससे सूरज से सबसे ज्यादा विकिरण हो सकता है। इससे निकलने वाली लपटों और चुंबकीय ऊर्जा में तेजी से वृद्धि हो सकती है। यह धरतीवासियों के लिए खतरनाक होगा। सौर ज्वालाओं से फूटने वाला यह विकिरण वैज्ञानिक भाषा में विद्युत चुंबकीय ऊर्जा के नाम से जाना जाता है। इसमें वे तमाम किरणें समाई रहती हैं, जिन्हें हम आमतौर पर गामा किरणें, एक्स किरणें, पराबैंगनी किरणें आदि नामों से पुकारते हैं। सूरज से आने वाली समस्त ऊर्जा इन्हीं विकिरणों के रूप में वायु में धरती तक पहुंचती है। वैज्ञानिकों के अनुसार, इन सौर लपटों की शक्ति सैकड़ों हाइड्रोजन बमों के बराबर होती है। इसकी विद्युत चुंबकीय शक्ति हमारी दूरसंचार प्रणाली, विद्युत आपूर्ति व्यवस्था और अंतरिक्ष में घूमते उपग्रहों को ठप कर सकती है। हाईटेक तकनीकों पर इसका गहरा असर पड़ सकता है। पिछली बार 12 जुलाई 2000 में जब सौर लपटें उठीं थी तो अंतरिक्ष में चक्कर लगाते कृत्रिम उपग्रहों में अचानक गड़बड़ी पैदा हो गई। रेडियो संदेशों के आदान-प्रदान का सिलसिला कुछ समय के लिए ठप पड़ गया। इस लपट के साथ खरबों टन सौर सामग्री भी धरती की ओर चल पड़ी। इसका धरती के मौसम और वातावरण पर प्रभाव पड़ा, परंतु किसी जान-माल की क्षति नहीं हुई।
Sunday, May 1, 2011
मिलिए अजब चाल वाले पृथ्वी के नन्हें दोस्त से
वह बहुत छोटा है। चाल भी उसकी बड़ी ही अजीबोगरीब है। मगर आकाशगंगा के करोड़ों पिंडों में पृथ्वी के इस नए दोस्त की तलाश से वैज्ञानिक काफी उत्साहित हैं। अजब-गजब चाल वाले पृथ्वी के इस सहचर ग्रह की खोज से आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान के वैज्ञानिकों को आकाशगंगा की कुछ नई गुत्थियां सुलझने की उम्मीद बंधी है। सौर परिवार में करोड़ों पिंड विचरण कर रहे हैं, जिनमें कुछ पृथ्वी के सहचर लघु ग्रह हैं। नासा के वाइस अंतरिक्ष यान ने ऐसे ही इस सबसे लघु ग्रह का पता लगाया है। उन्होंने बताया कि गत वर्ष इसका पता चल गया था। तब से वैज्ञानिक इसकी पड़ताल में जुटे हैं। गहन अध्ययन के बाद इस नए उप ग्रह की पुष्टि हो पाई। वैज्ञानिकों ने इसका नाम 2010 एसओ-16 रखा है। भारतीय तारा भौतिकी संस्थान के खगोल वैज्ञानिक प्रो.आरसी कपूर के मुताबिक, सका कक्षा (ऑर्बिट) पृथ्वी के समान है, लेकिन कुछ अधिक अंडाकार है। इसे सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में 365 दिन, छह घंटे लगते हैं। आकार में यह लगभग 400 मीटर का है। अध्ययन के बाद हाल ही में इसके एस्टीराइड होने की पुष्टि हो सकी है। इस पिंड की खास बात यह है कि यह विचित्र गति करने वाला लघु ग्रह है। जब पृथ्वी के करीब होता है तो इसकी गति तेज हो जाती है और जब दूर होता है तो गति धीमी हो जाती है। फिलहाल इसकी चाल व आकार के बारे में पता चल गया है, लेकिन अभी वैज्ञानिक अब इस बात का भी अध्ययन कर रहे हैं कि इसका निर्माण पृथ्वी के समीप हुआ है या फिर एस्टीराइड बेल्ट में हुआ। इस पिंड से पहले ऐसे ही चार अन्य लघु ग्रह खोजे जा चुके हैं। इनके नाम 54-509 वाईओ, आरपी, 2002 एए-29, 2001 जीओ 2 तथा 3753 क्रूथन है। यह सभी एस्टीराइड पृथ्वी के सहचर हैं। सौर परिवार में अलग-अलग तरह के विचरण करते करोड़ों पिंडों पर पृथ्वी से टकराने की आशंका के चलते वैज्ञानिकों की इन पर खास नजर रहती है। नैनीताल के आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान के सूचना वैज्ञानिक डॉ. राजेश कुमार ने बताया कि यह बेहद महत्वपूर्ण खोज है।
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