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Wednesday, June 1, 2011

चांद पर मौजूद है पृथ्वी जितना पानी : अध्ययन


चांद पर पहले की सोच से 100 गुना ज्यादा पानी मौजूद हो सकता है। नए अध्ययन में दावा किया गया है कि इसकी मात्रा इतनी हो सकती है जितनी पृथ्वी पर है। वैज्ञानिकों ने हाल ही में चांद पर पानी को खोजा था। लंबे समय से यह इलाका धूल भरा और सूखा माना जाता रहा है। मगर 1972 में अपोलो 17 द्वारा लाए गए चांद की चट्टानों के नमूनों का विश्लेषण करने के बाद अब यह निष्कर्ष निकाला गया है। डेली मेल की खबर के अनुसार, केस वेस्टर्न रिजर्व यूनिवर्सिटी के शोधकर्ताओं ने इन ज्वालामुखीय नमूनों का विश्लेषण किया है। इन वैज्ञानिकों का मानना है कि चांद पर जितना जल सोचा जाता है उससे 100 गुना ज्यादा हो सकता है। यहां तक की अगर चांद पर जल की पूरी मात्रा को नापा जाए तो यह पृथ्वी के ऊपरी मेंटल से भी ज्यादा हो सकती है। ऊपरी मेंटर आधी पिघली चट्टानों की वह सतह होती है जो धरती की ऊपरी सतह के एकदम नीचे मौजूद होती है। अगर ऐसा ही है तो यह अध्ययन लंबे समय से चली आ रही चांद के निर्माण की थ्योरी को चुनौती देता है। अधिकतर विशेषज्ञ मानते हैं कि पृथ्वी पर एक भीषण टक्कर ने इसके एक हिस्से को अंतरिक्ष में उछाल दिया जो चांद बन गया। मगर इस टकराव से पैदा हुए बल के कारण चांद का पानी वाष्प बनकर उड़ गया। अब चांद की भीतरी सतह में पानी की अत्यधिक मात्रा के पता लगने से इस विचार पर संदेह पैदा हो गया है। यह अध्ययन जर्नल साइंस में प्रकाशित किया गया है। शोध की अगुवाई करने वाले प्रोफेसर जेम्स वान ओरमैन ने कहा, ये नमूने हमें अब तक का सर्वश्रेष्ठ अंदाजा लगाने में मदद करते हैं कि चांद की भीतरी सतह में कितना पानी मौजूद है। उन्होंने कहा, चांद की भीतरी सतह काफी हद तक पृथ्वी की भीतरी सतह जैसी ही लगती है। जितना हम पानी की प्रचूरता के बारे में जानते हैं। नारंगी रंग के मनके गहराई से तब बाहर आए जब लंबे समय पूर्व चांद पर ज्वालामुखी फटे, तब तक चंद्रमा भूगर्भीय रूप से सक्रिय हुआ करता था.


Sunday, May 15, 2011

एलियंस के लिए 86 ग्रहों पर नजर


अंतरिक्ष के प्राणियों की खोज के लिए वैज्ञानिक पिछले कई दशकों से प्रयास कर रहे हैं। मगर आज तक उन्हें इस दिशा में कोई खास सफलता हासिल नहीं हुई है। इसी कड़ी में अब एक और काफी बड़े स्तर पर एलियंस को ढूंढ़ने की कोशिश की जा रही है। इसके लिए वैज्ञानिकों ने 86 ग्रहों को चुना है जो पृथ्वी जैसे ही दिखते हैं। इन ग्रहों पर दिन-रात नजर रखने के लिए उन्होंने पश्चिमी वर्जीनिया के ग्रामीण इलाके में एक विशाल रेडियो दूरबीन (टेलीस्कोप) लगाई है। इस दूरबीन ने अपना काम शुरू भी कर दिया है। यह 86 ग्रह नासा के केप्लर अंतरिक्ष दूरबीन द्वारा चुने गए संभावित 1235 ग्रहों की सूची में से लिए गए हैं। कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय, बर्कले के स्नातक छात्र एंड्रयू सिमोन ने कहा, वास्तव में यह संभव नहीं है की इन सभी ग्रहों का वातावरण रहने योग्य ही हो लेकिन ये एलियंस की खोज के लिए बेहतर जगहें हैं। यह अभियान एसईटीआइ परियोजना का हिस्सा है, जिसका मतलब सर्च फॉर एक्ट्रा टेरेस्ट्रीयल इंटेलीजेंस है। यह परियोजना 80वें दशक के मध्य में शुरू की गई थी। पिछले माह एसईटीआइ इंस्टीट्यूट ने घोषणा की थी कि वह अपने प्रयासों के मुख्य हिस्से को बंद कर रहा है। इसका कारण बजट में पांच मिलियन डॉलर (करीब 22.5 करोड़ रुपये) की कमी होना था। उनकी इस 50 मिलियन डॉलर (करीब 2.25 अरब रुपये) लागत वाली परियोजना में 42 टेलीस्कोप लगाए गए थे। खगोल विज्ञानियों को उम्मीद है कि ग्रीन बैंक टेलीस्कोप ग्रहों पर जीवन संबंधी जानकारियां जुटाने में मददगार साबित होगा। सिमोन ने कहा कि हम फ्रीक्वेंसी और संकेतों की वृहद रेंज को देखेंगे जो इससे पहले भी संभव हो चुकी है। उन्होंने कहा कि यह टेलीस्कोप प्रति सेकेंड एक गीगाबाइट डाटा के करीब रिकॉर्ड कर सकता है। 77 लाख किलो वजनी यह टेलीस्कोप वर्ष 2000 में काम करने के लिए तैयार हो चुका था और फिलहाल नेशनल रेडिया एस्ट्रोनॉमी ऑब्जरवेटरी के अभियान का हिस्सा है। भौतिकविद् डेन वर्टिमर ने कहा, हमने ऐसे ग्रह चुने हैं जहां का तापमान अच्छा है, जीरो डिग्री से 100 डिग्री सेल्सियस के बीच। इसलिए इनकी बहुत हद तक आश्रय स्थल होने की संभावना है। वर्टिमर प्यूर्टो रिको में तीन दशक लंबी एसईटीआइ परियोजना की अगुवाई कर रहे हैं। प्यूर्टो रिको दुनिया के सबसे बड़े रेडियो टेलीस्कोप एरेसिबो का ठिकाना भी है। वर्टिमर ने कहा, एरेसिबो हालांकि उत्तरी अंतरिक्ष के समान इलाके की निगरानी नहीं, जो ग्रीन बैंक टेलीस्कोप कर सकता है। उन्होंने कहा, एरेसिबो के जरिए हम सूर्य जैसे तारों पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं। हमें उम्मीद है कि उसके आसपास ऐसे ग्रह हो सकते हैं जो बौद्धिक संकेतों का संचार करते हों। मगर हमारे पास पहले ऐसी कोई सूची नहीं थी। ग्रीन बैंक टेलीस्कोप फ्रीक्वेंसी की रेंज को एरेसिबो के मुकाबले 300 गुना तक स्कैन कर सकता है। इसका मतलब यह हुआ कि यह एक दिन में उतना डाटा एकत्रित कर सकता है जितना एरिसिबो एक साल में करेगा। इस परियोजना के पूरा होने में एक साल का समय लगने की उम्मीद जताई गई है।


Sunday, May 1, 2011

मिलिए अजब चाल वाले पृथ्वी के नन्हें दोस्त से



वह बहुत छोटा है। चाल भी उसकी बड़ी ही अजीबोगरीब है। मगर आकाशगंगा के करोड़ों पिंडों में पृथ्वी के इस नए दोस्त की तलाश से वैज्ञानिक काफी उत्साहित हैं। अजब-गजब चाल वाले पृथ्वी के इस सहचर ग्रह की खोज से आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान के वैज्ञानिकों को आकाशगंगा की कुछ नई गुत्थियां सुलझने की उम्मीद बंधी है। सौर परिवार में करोड़ों पिंड विचरण कर रहे हैं, जिनमें कुछ पृथ्वी के सहचर लघु ग्रह हैं। नासा के वाइस अंतरिक्ष यान ने ऐसे ही इस सबसे लघु ग्रह का पता लगाया है। उन्होंने बताया कि गत वर्ष इसका पता चल गया था। तब से वैज्ञानिक इसकी पड़ताल में जुटे हैं। गहन अध्ययन के बाद इस नए उप ग्रह की पुष्टि हो पाई। वैज्ञानिकों ने इसका नाम 2010 एसओ-16 रखा है। भारतीय तारा भौतिकी संस्थान के खगोल वैज्ञानिक प्रो.आरसी कपूर के मुताबिक, सका कक्षा (ऑर्बिट) पृथ्वी के समान है, लेकिन कुछ अधिक अंडाकार है। इसे सूर्य का एक चक्कर पूरा करने में 365 दिन, छह घंटे लगते हैं। आकार में यह लगभग 400 मीटर का है। अध्ययन के बाद हाल ही में इसके एस्टीराइड होने की पुष्टि हो सकी है। इस पिंड की खास बात यह है कि यह विचित्र गति करने वाला लघु ग्रह है। जब पृथ्वी के करीब होता है तो इसकी गति तेज हो जाती है और जब दूर होता है तो गति धीमी हो जाती है। फिलहाल इसकी चाल व आकार के बारे में पता चल गया है, लेकिन अभी वैज्ञानिक अब इस बात का भी अध्ययन कर रहे हैं कि इसका निर्माण पृथ्वी के समीप हुआ है या फिर एस्टीराइड बेल्ट में हुआ। इस पिंड से पहले ऐसे ही चार अन्य लघु ग्रह खोजे जा चुके हैं। इनके नाम 54-509 वाईओ, आरपी, 2002 एए-29, 2001 जीओ 2 तथा 3753 क्रूथन है। यह सभी एस्टीराइड पृथ्वी के सहचर हैं। सौर परिवार में अलग-अलग तरह के विचरण करते करोड़ों पिंडों पर पृथ्वी से टकराने की आशंका के चलते वैज्ञानिकों की इन पर खास नजर रहती है। नैनीताल के आर्यभट्ट प्रेक्षण विज्ञान शोध संस्थान के सूचना वैज्ञानिक डॉ. राजेश कुमार ने बताया कि यह बेहद महत्वपूर्ण खोज है।


Monday, April 18, 2011

क्यूरियोसिटी करेगा अब तक की मंगल की सबसे बड़ी पड़ताल


पिछली कुछ सदियों से सौरमंडल के जिस ग्रह ने धरती पर सबसे ज्यादा दिलचस्पी जगाई है, वह है हमारा पड़ोसी ग्रह मंगल कुछ दशक पहले तक भी लोगों का प्रबल विश्वास था (कुछ हद तक अब भी) कि पृथ्वी की तरह वहां भी कोई विकसित सभ्यता हो सकती है। 1965 में मंगल के पास से गुजरे नासा के अंतरिक्षयान वॉयजर ने इसके चित्र भेजे तो इस 'लाल ग्रह' के बारे में कई नई बातें सामने आई कि पृथ्वी से मिलता-जुलता यह ग्रह वास्तव में उससे कितना भिन्न है और उसके बारे में जानकारियां जुटाना बेहद चुनौती भरा काम है। इस क्रम में पिछले पांच दशकों से मंगल को खंगालने का काम जारी है लेकिन मंगल से जुड़े अभियानों पर अरबों डालर खर्च करने के बाद भी अब तक हम यह नहीं जान पाए हैं कि क्या मंगल पर कभी जीवन था, यदि था तो कैसा था और क्यों विलुप्त हुआ? इसी तरह, क्या मंगल के हिमाच्छादित ध्रुवों और सतह के नीचे सूक्ष्मजीवियों का अस्तित्व है? सौरमंडल की शुरुआती पड़ताल के अभियान मंगल ग्रह के पास से गुजरते हुए अंतरिक्षयानों द्वारा उसके फोटो लेने तक सीमित थे। जैसे-जैसे तकनीकी क्षमताएं बढ़ती गई, अंतरिक्षयानों को मंगल की कक्षा में भेजना संभव हुआ जिससे वे उसके चारों ओर घूमते हुए उसकी जानकारी जुटाने लगे। तकनीकी क्षमताएं और बढ़ीं तो मंगल की सतह पर लैंडर और रोबर्स को उतारना संभव हो गया। इतना ही नहीं, वहां उतारे गए रोबोटिक यानों को सतह पर घुमाना और जानकारियां जुटाने में कामयाबी मिलने लगी। मंगल पर रोबोटिक यान उतारने की इस कड़ी में अब तक के तमाम रिकार्ड तोड़ने को तैयार है 2.3 अरब डॉलर की लागत वाला क्यूरियोसिटी नामक रोबर, जिसे इन दिनों नासा के वैज्ञानिक और इंजीनियरअंतिम रूप देने में जुटे हैं। क्यूरियोसिटी को इस साल के अंत में नवम्बर और दिसम्बर के बीच मंगल के लिए रवाना किया जाएगा। यह अगले साल के मध्य तक मंगल ग्रह पर पहुंचेगा। मंगल पर अब तक भेजे गए रोवर्स जैसे कि सोजोर्नर, स्पिरिट, अपॉच्युर्निटी की तुलना में इसके कार्य एकदम अलग और बेहद जानकारी पूर्ण होंगे।

Saturday, March 26, 2011

एयरब्रश तकनीक


अब आपको फोटो खिंचवाने के लिए मेकअप करने की आवश्यकता नहीं है! जापानी वैज्ञानिकों ने विशेष एयरब्रश तकनीक वाला एक उच्च प्रौद्योगिकी का कैमरा विकसित करने का दावा किया है। इसकी मदद से तस्वीर में आपके दांतों तक को मोतियों जैसा सफेद बनाया जा सकता है। डेलीमेल के अनुसार पैनासोनिक कंपनी के ल्यूमिन डीएमसी-एफएक्स 77 कैमरे में ब्यूटी रीटच मोड होता है जिसकी मदद से तस्वीर में व्यक्ति के दांतों को सफेद बनाया जा सकता है, गालों पर रंगत लाई जा सकती है और चेहरे की झुर्रियों तक को कम किया जा सकता है। इस कैमरे में एयरब्रशिंग सॉफ्टवेयर, 16-मेगापिक्सल सेंसर और 3.5 इंच की एलसीडी टच स्क्रीन है। इसको बनाने वालों का दावा है कि इससे फोटो में चेहरे के मेकअप के साथ ही त्वचा को सपाट या चिकना दिखाया जा सकता है। डेली मेल की रिपोर्ट के अनुसार, आपके चेहरे की तस्वीर लेने के साथ कैमरे में मौजूद विभिन्न मोड अलग-अलग कार्य करते हैं। उदाहरण के लिए, एस्थेटिक मोड त्वचा को साफ और दांतों को चमकाता है। रिपोर्ट के मुताबिक, बेहतर चेहरे को फिक्स करने के लिए तस्वीर पर विभिन्न ग्रेड इस्तेमाल किए जा सकते हैं। ज्यादा गहन स्तर तस्वीर के विवरण को ज्यादा आकर्षक बनाने की जगह भद्दा भी बना सकते हैं। शोधकर्ताओं ने बताया कि संभवत: मेकअप मोड इस कैमरे का सबसे रोचक फीचर है। इसके जरिए फाउंडेशन लगाने के लिए रंगों और टोन्स का चुनाव किया जा सकता है, ब्लश और यहां तक की लिपस्टिक को भी मनमुताबिक आकर्षक बना सकते हैं। रिपोर्ट में कहा गया है कि पूरी तरह परीक्षण के बिना हालांकि यह कहना मुश्किल है कि इसके अंतिम परिणामों में वास्तविक सुधार आ सकता है या नहीं|

Friday, March 18, 2011

रक्त प्रवाह में बाधा नहीं बनेगा थक्का


 ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने कोलेस्ट्रॉल को नियंत्रित करने वाले प्रोटीन का पता लगाया है जो थ्रोम्बोसिस के निर्माण में मुख्य भूमिका निभाता है। थ्रोम्बोसिस रक्त के थक्के की एक किस्म है जो हृदयाघात और स्ट्रोक का कारण बना सकती है। थ्रोम्बोसिस बनने में एलएक्सआर प्रोटीन की भूमिका को समझने में कामयाबी मिलने से इसके बेहतर इलाज का मार्ग प्रशस्त हुआ है। इससे हर साल हजारों लोगों की जान बचाई जा सकेगी। अनुसंधान दल के प्रमुख रीडिंग यूनिवर्सिटी के इंस्टीट्यूट ऑफ कार्डियोवैस्कुलर एंड मेटाबोलिक रिसर्च के निदेशक प्रोफेसर जॉन गिबन्स का कहना है कि रक्तस्राव रोकने के लिए खून का जमना जरूरी होता है मगर रक्त प्रवाह में खून का जमना एक बीमारी है जो थ्रोम्बोसिस के नाम से जानी जाती है। इससे लोगों को हृदयाघात और स्ट्रोक भी हो सकता है। शोधकर्ताओं के अनुसार, एलएक्सआर प्रोटीन को नियंत्रित करने वाली दवाएं बनाकर वैज्ञानिक थ्रोम्बोसिस को रोकने में कामयाब हो सकते हैं और कोलेस्ट्रॉल के स्तर को भी नियंत्रित कर सकते हैं। ब्लड जर्नल में शोध का विवरण देने वाले शोधकर्ताओं ने कहा कि इससे हृदय और सर्कुलेटरी बीमारियों से लड़ने में मदद मिल सकेगी। ब्रिटेन में इन बीमारियों के कारण हर साल तकरीबन 1.91 लाख लोग मर जाते हैं। यह पहले से ही मालूम है कि प्रोटीन रक्त कोलेस्ट्रॉल के स्तर को नियंत्रित करता है, जिसके कारण रक्त शिराएं संकरी हो सकती हैं और हृदयाघात या स्ट्रोक का खतरा बढ़ जाता है। मगर शोधकर्ताओं ने पाया है कि एलएक्सआर भी रक्त कोशिकाओं जिन्हें प्लेटलेट्स कहते हैं, की क्रियाविधि को रोकता है। जिससे रक्त का थक्का बन जाता है। यह स्थिति हृदयाघात को उकसा सकती है। अध्ययन में शोधकर्ताओं ने प्रयोगात्मक दवाओं के साथ चूहे में प्रोटीन पर निशाना साधा। उन्होंने पाया कि इलाज के दौरान छोटे रक्त के थक्के तो बने मगर जल्दी ही इनके निर्माण को तेजी से रोक दिया गया। जिससे रक्त शिराओं को ब्लॉक होने से बचाया जा सका और हृदयाघात होने की संभावना को भी रोक दिया|

Monday, March 14, 2011

सस्ती और भरोसमंद अंतरिक्षयात्रा के लिए बन रहे स्पेसप्लेन


वैज्ञानिकों ने जारी किए दुबारा इस्ते माल किए जा सकने वाले एकदम नए किस्म के स्पेसप्लेन के चित्र

हाल ही में नासा के शटल यान डिस्कवरी ने आखिरी बार अपनी अंतरिक्ष यात्रा पूरी की। इसी के साथ उसका 27 वर्षो का शानदार सफर समाप्त हो गया। डिस्कवरी समेत इस साल नासा इंडेवर और अटलांटिस नामक शटल यानों को भी रिटायर कर रहा है। इसी के साथ शटल यानों के एक युग का समापन हो जाएगा। उपग्रहों और वेधशालाओं (जैसे कि हबल) और अंतरराष्ट्रीय अंतरिक्ष स्टेशन तक तमाम साजोसामान,अनुसंधान सामग्री और अंतरिक्षयात्रियों को ले जाने-लाने में इन शटल यानों की बेहद महत्वपूर्ण भूमिका रही है। नासा के बेड़े में अब केवल दो शटल यान ही सक्रिय भूमिका निभाएंगे जो कि अंतरिक्षीय गतिविधियों को जारी रखने के लिए काफी नहीं होंगे। इसी के मद्देनजर पिछले दिनों ब्रिटिश वैज्ञानिकों ने दुबारा इस्तेमाल किए जा सकने वाले एकदम नए किस्म के स्पेसप्लेन के चित्रों को जारी किया है। उनका कहना है कि ये न सिर्फ शटल यानों से बेहतर होंगे बल्कि अंतरिक्ष पर्यटन को नई ऊंचाइयों पर भी पहुंचाएंगे। स्काईलोन नामक ये यान बिना पायलट के होंगे। इनका निर्माण ब्रिटेन की रिएक्शन इंजन्स कर रही है। ये यान आने वाले वर्षो में बाह्य अंतरिक्ष में सस्ती और विश्वसनीय यात्रा सुलभ कराएंगे। इंजीनियरों को उम्मीद है कि स्काईलोन कुछ ही वर्षो में डिस्कवरी की जगह ले लेगा। नए विकसित किए जा रहे अंतरिक्षयान परंपरागत शटल यानों से एकदम भिन्न और लंबे होंगे। इनकी लंबाई 90 मीटर होगी। इसका इंजन हाइड़ोजन ईधन से संचालित होगा जिसका डिजाइन कंपनी के मैनेजिंग डायरेक्टर एलन बांड ने किया है। शुरुआत में इसका मुख्य उद्देश्य उपग्रहों को अंतरिक्ष में लांच करना था लेकिन अब इसे इस तरह से डिजाइन किया जा रहा है कि यह 30 से 40 यात्रियों को भी साथ ले जाएगा। इसके साथ ही यह अंतरिक्ष पर्यटन में नए युग के द्वार खोल देगा। कंपनी के विशेषज्ञों के मुताबिक इसका निर्माण अभी शुरुआती दौर में है और सामान्य ब्रिटिश नागरिकों को इसकी यात्रा करने के लिए अभी 10 साल और इंतजार करना होगा। रिएक्शन इंजन्स लिमिटेड के प्रोग्राम डायरेक्टर के अनुसार, इसका इंजन हवा के साथ हाइड्रोजन जलाकर शुरू होता है और द्रव ऑक्सीजन के साथ हाइड्रोजन जलाने के साथ बंद होता है, जैसा कि शटल इंजन में होता है। यही वह वजह है जो नासा तथा यूरोपीय अंतरिक्ष एजेंसी के यानों को पीछे छोड़ देता है क्योंकि उन्हें कक्षा में आगे बढ़ने के लिए डिस्पोजेबल और महंगे ईधन की जरूरत होती है। स्काईलोन के निर्माण पर करीब छह अरब पौंड की लागत आएगी।





Tuesday, March 8, 2011

हार्टअटैक का पता पहले ही


जल्द ही उन लोगों की पहचान संभव हो सकेगी जिन्हें भविष्य में दिल का दौरा पड़ सकता है। भारतीय मूल के एक वैज्ञानिक के नेतृत्व में अनुसंधानकर्ताओं ने दर्जन भर से अधिक ऐसे जीनों की पहचान की है जिनका संबंध दिल की बीमारी से है। ब्रिटिश हार्ट फाउंडेशन के प्रोफेसर निलेश समानी की अगुवाई में एक अंतरराष्ट्रीय दल ने दिल के दौरे की आशंका वाले लोगों के डीएनए में खामी का पता लगाने के लिए 140,000 लोगों की जीन संरचना का अध्ययन किया। इस दौरान वैज्ञानिकों ने हृदय की बीमारी से संबंध रखने वाले 13 नए जीनों की पहचान की। यह संख्या अब तक हृदयाघात से जुड़े ज्ञात जीनों की संख्या से दोगुनी है। वैज्ञानिकों का कहना है कि उनकी यह खोज हृदयाघात का नया इलाज खोजने में मददगार हो सकती है और उन लोगों का पता लगाने में भी कारगर हो सकती है जिन्हें भविष्य में दिल के दौरे की आशंका हो। प्रोफेसर समानी का कहना है कि चिह्नित किए गए ज्यादातर जीनों के बारे में यह जानकारी नहीं थी कि इनका संबंध कोरोनरी धमनी की समस्या से है जो कि हृदयाघात का मुख्य कारण है। डेली टेलीग्राफ में उनके हवाले से कहा गया है, अब हम अध्ययन करेंगे कि ये जीन कैसे काम करते हैं। निश्चित रूप से तब हम पता लगा सकेंगे कि यह बीमारी कैसे होती है और इसका इलाज कैसे किया जा सकता है। इस अध्ययन में अमेरिका, यूरोप, आइलैंड, ब्रिटेन और कनाडा के 167 चिकित्सक और वैज्ञानिक शामिल थे। उन्होंने लोगों के जनेटिक कोड का अध्ययन किया ताकि वह डीएनए में उन विभिन्नताओं का पता लगा सकें जो कोरोनरी धमनी से संबंधित दिल की बीमारी वाले लोगों में पाई जाती हैं। ब्रिटिश हार्ट फाउंडेशन के प्रोफेसर पीटर वीसबर्ग ने कहा कि जितने बड़े पैमाने पर जनेटिक अध्ययन होता गया हमने उन जीनों की पहचान शुरू कर दी जो दिल की बीमारी के विकास में काफी बड़ी या छोटी भूमिका निभाते हैं। उन्होंने बताया कि हर नए जीन की पहचान के साथ हम कार्डियोवेस्कुलर बीमारी के विकास की जैविक प्रणालियों और उसके नए संभावित इलाज को समझने के करीब आते गए। रोचक बात यह रही कि 13 नए जीन क्षेत्रों में सिर्फ तीन ही कोरोनरी बीमारी से संबंधित थे। ये खतरे के आम कारकों जैसे कोलेस्ट्रॉल के उच्च्च स्तर, रक्तचाप, मधुमेह, धूम्रपान और मोटापे से जुड़े हुए थे। यह अध्ययन नेचर जनेटिक्स जर्नल के ताजे अंक में प्रकाशित किया गया है|

Monday, March 7, 2011

नासा के वैज्ञानिक ने किया दूसरे ग्रह का प्राणी खोजने का दावा


पृथ्वी के दूरस्थ इलाकों में गिरे उल्कापिंडों में मिले छोटे-से जीवाश्मीकृत बैक्टीरिया के 10 वर्षो के अध्ययन के बाद किया गया खु लासा दुनिया के 5000 वैज्ञानिकों और 100 विशेषज्ञों को इस शोध का विश्लेषण करने के लिए किया गया है आमंत्रित
लंदन। नासा के एक वैज्ञानिक का दावा है कि उसने परग्रही जीवन यानी एलियन का पता लगा लिया है और इस खोज से मालूम किया जा सकता है कि पृथ्वी पर जीवन की शुरुआत कैसे हुई। इस तरह का असाधारण दावा किया है डॉ. र्रिचड हूवर ने जो कि नासा के मार्शल स्पेस फ्लाइट सेंटर में एस्ट्रोबायोलॉजिस्ट हैं। डॉ. र्रिचड हूवर ने यह खुलासा पृथ्वी के दूरस्थ इलाकों में गिरे उल्कापिंडों में मिले छोटे-से जीवाश्मीकृत बैक्टीरिया के 10 वर्षो के अध्ययन के बाद किया। डॉ.हूवर ने चुनौती देते हुए घोषणा की है कि दुनिया का कोई भी बैज्ञानिक इसकी जांच करे और उसे गलत साबित करके दिखाए। उन्होंने बताया कि अंटार्कटिका, साइबेरिया और अलास्का की यात्रा के दौरान उन्होंने अत्यंत दुर्लभ उल्कापिंड ‘सीआई1 काबरेनेशियस कोन्ड्राइट्स’ का अध्ययन किया। समझा जाता है कि पृथ्वी पर ऐसे केवल नौ उल्कापिंड ही हैं। उन्होंने कहा ‘ऐसा संकेत मिलता है कि जीवन केवल पृथ्वी तक ही सीमित नहीं है।’
शक्तिशाली सूक्ष्मदर्शी से जीवाश्म की जांच-परख करने वाले डॉ. हूवर ने कहा, ‘मैंने अब तक बैक्टीरिया के तरह-तरह के जीवाश्म देखे हैं। इनमें से कई ऐसे हैं जो पृथ्वी पर पाए जाने वाली प्रजातियों से बेहद मिलते- जुलते हैं लेकिन कुछ एकदम अलग, यानी जो इस दुनिया के हैं ही नहीं।’ डॉ. हूबर का का कहना है कि ब्रह्मांड में जीवन के बीज उल्कापिंडों के जरिए फैलते होंगे और पृथ्वी पर जीवन किसी क्षुद्रग्रह के टकराने के दौरान किसी बैक्टीरिया के माध्यम से ही आया होगा। उन्होंने ‘फॉक्स न्यूज’ से कहा ‘कुछ ऐसे बैक्टीरिया भी हैं जो बिल्कुल अलग हैं और उनकी तरह नहीं दिखते जिन्हें हम पहचान सकते हैं। मैंने उन्हें कई अन्य विशेषज्ञों को दिखाया और उनकी राय भी ऐसी ही थी।’ डॉ. हूवर प्रत्येक उल्कापिंड के पत्थर संग्रह कर उन्हें प्रयोगशाला में ले जाते हैं और वहां तोड़ कर उनके जीवाश्मों का अध्ययन करते हैं। इसी सिलसिले में स्कैनिंग करते हुए उन्होंने एक जैविक अवशेष पाया जिसमें नाइट्रोजन नहीं थी। अब तक माना जाता है कि सभी जीवित प्राणियों में नाइट्रोजन पाई जाती है। यह शोध कॉस्मोलॉजी जर्नल के मार्च संस्करण में प्रकाशित हुआ है जिसने दुनिया के 5000 वैज्ञानिकों और 100 विशेषज्ञों को इस शोध का विश्लेषण करने के लिए आमंत्रित किया है।

चीन 2030 तक चांद पर भेजेगा इंसान


चीन वर्ष 2030 तक चांद पर मनुष्य को भेजने की तैयारी कर रहा है। इसके लिए वैज्ञानिकों का प्रशिक्षण शुरू हो गया है। चीन ने पहली बार दो महिला अंतरिक्ष यात्रियों को भी प्रशिक्षण के लिए नियुक्त किया है। चीन की महत्वाकांक्षी परियोजना से जुड़े वैज्ञानिक ने इसे शांतिपूर्ण बताया है, न कि धमकीभरा। समाचार-पत्र चाइना डेली ने चाइना अकेडमी ऑफ स्पेस टेक्नोलॉजी में अंतरिक्ष खोज से जुड़े मुख्य वैज्ञानिक ये पीजियान के हवाले से लिखा है कि अमेरिका और रूस के मुकाबले चीन का अंतरिक्ष तकनीक अब भी बहुत पीछे है। चांद पर खोज के लिए चीन ने तीन चरणों में अपनी योजना बनाई है। पहले चरण के तहत पिछले साल अक्टूबर में चेंज-2 नामक उपग्रह छोड़ा गया था। दूसरे चरण के तहत 2013 में चेंज-3 चांद पर उतरेगा, जबकि अंतिम चरण के तहत 2017 में चांद के चट्टानों के नमूने धरती पर भेजे जाएंगे। चाइना मैन्ड स्पेस इंजीनियरिंग ऑफिस के प्रवक्ता ने बताया कि चीन 2011 में तियांगोंग-1 नामक अंतरिक्ष मॉड्यूल भी लांच करेगा। 2012 में दो इंसानी अंतरिक्ष यान तियांगोंग-1 के साथ रवाना होंगे। अधिकारियों के अनुसार अंतरिक्ष स्टेशन 10 साल के लिए होगा और इस दौरान दो या तीन अंतरिक्ष यात्रियों द्वारा इसकी देखरेख की जाएगी।


जीन तय करते हैं दिमाग तेज होगा या मंद


आपका मस्तिष्क कितनी अच्छी तरह काम करता है वह बहुत कुछ इस बात पर निर्भर करता है कि आपके परिवार की अनुवांशिक संरचना कैसी है। मेलबर्न विश्वविद्यालय की अगुवाई में वैज्ञानिकों के अंतरराष्ट्रीय दल ने अपने अध्ययन के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला है। दल ने अध्ययन के दौरान पाया कि हर व्यक्ति के मस्तिष्क की प्रभावक्षमता उसकी संरचना पर आधारित होती है। जनरल ऑफ न्यूरोसाइंस में यह अध्ययन प्रकाशित हुआ है। अध्ययन के प्रमुख लेखक डॉ. एलेक्स फोर्निटो ने कहा कि इस निष्कर्ष का इस समझ पर गहरा असर पड़ेगा कि क्यों कुछ लोग अन्य की तुलना में कुछ खास काम करने में ज्यादा समर्थ होते हैं। इसके अलावा यह समझने में भी मदद मिलेगी कि मानसिक और कुछ न्यूरोलॉजिकल बीमारियों का अनुवांशिक आधार क्या है। उन्होंने कहा कि सालों से वैज्ञानिकों के लिए यह बात रहस्य बनी हुई है कि कैसे मस्तिष्क का नेटवर्क इतना व्यवस्थित बना। मस्तिष्क खरबों तंतुओं द्वारा आपस में जुड़ीं अरबों तंत्रिकीय कोशिकाओं का एक असाधारण जटिल जाल है। शोधकर्ताओं के अनुसार इस अध्ययन से यह पता करने में मदद मिलेगी कि कौन सा ऐसा खास जीन है जो संज्ञानात्मक क्षमताओं की विभिन्नताओं और सीजोफ्रेनिया व अल्जाइमर जैसे मानसिक रोगों के जोखिम को समझने में महत्वपूर्ण है। उन्होंने कहा कि यद्यपि जीन मस्तिष्क के कार्यो में मुख्य भूमिका अदा करते हैं मगर मानसिक बीमारियों और अन्य दिमागी विकारों के मामलों में जब चीजें गलत जा रही हों तो माहौल और अन्य कारक भी अपना योगदान देते हैं। क्वींसलैंड, कैंब्रिज और यूके विश्वविद्यालयों के वैज्ञानिकों के दल ने 38 समान और 26 असमान जुड़वाओं के मस्तिष्क के स्कैन की तुलना की।


Friday, March 4, 2011

सूर्य के लापता धब्बों की वजह का पता चला


दुनिया भर के सौर वैज्ञानिक वर्ष 2008-09 के दौरान सूर्य के धब्बों के लापता होने से चकित थे ‘सूर्य के भीतर मौजूद प्लाज्मा की धाराओं ने सूर्य के धब्बों के निर्माण में हस्तक्षेप किया और सौर न्यूनता को बढ़ाया।
भारत के शीर्ष वैज्ञानिक संगठन और नासा द्वारा प्रायोजित एक संयुक्त अनुसंधान और कोलकाता के एक वैज्ञानिक ने सूर्य के 11 वर्षीय चक्र के दौरान सौर गतिविधियों में कमी आने की पहेली को हल कर लिया है। दुनिया भर के सौर वैज्ञानिक वर्ष 2008-09 के दौरान सूर्य के धब्बों के लापता होने से चकित थे। पिछले 100 सालों के दौरान यह सर्वाधिक न्यूनतम सौर गतिविधि थी। न्यूनतम सौर गतिविधि के दौरान सूर्य के धब्बों और सौर अंधड़ों की आवृत्ति काफी कम हो जाती है। नासा के एक बयान के अनुसार, सौर गतिविधियों की इस न्यूनता का असर अंतरिक्ष यात्रा की सुरक्षा और हमारे ग्रह द्वारा इकट्ठा किए जाने वाले कक्षीय कचरे की मात्रा पर पड़ता है। भारतीय विज्ञान शिक्षा और अनुसंधान संस्थान, कोलकाता के प्रमुख लेखक दिव्येन्दु नंदी ने कहा, ‘सूर्य के भीतर मौजूद प्लाज्मा की धाराओं ने सूर्य के धब्बों के निर्माण में हस्तक्षेप किया और सौर न्यूनता को बढ़ाया।’
नासा के ‘लिविंग विद अ स्टार’ कार्यक्र म और भारत सरकार के विज्ञान और प्रौद्योगिकी विभाग द्वारा वित्तपोषित इस अनुसंधान से पता चला है कि इस सौर न्यूनता की अवधि में सूर्य का चुंबकीय क्षेत्र कमजोर हो जाता है जिसके कारण रिकार्ड संख्या में अंतरिक्षीय किरणों सौर पण्राली में प्रवेश कर जाती हैं। इसके चलते अंतरिक्ष की यात्रा जोखिमपूर्ण हो जाती है। इसमें कहा गया है, इसके साथ ही पराबैंगनी किरणों में कमी के कारण पृथ्वी की ऊपरी सतह ठंडी होकर ध्वस्त हो गई। नासा के विज्ञान मिशन निदेशालय में हिलियोफिजिक्स डिवीजन के निदेशक र्रिचड फिशर ने कहा, ‘इस अनुसंधान से यह प्रदर्शित होता है कि हिलियोफिजिक्स सिस्टम आब्जव्रेटरी मिशन के प्रेक्षण किस प्रकार नए सिद्धांतों और विकसित तकनीकों को प्रोत्साहित करते हैं।’ सौर चक्र या सौर चुंबकीय गतिविधि चक्र सूर्य से निकलने वाली प्रदीप्ति है जिसका अनुभव पृथ्वी पर होता है।


तो सस्ते दामों पर खूब मिलेगा डीजल!


वैज्ञानिकों की मानें तो इसे दुनिया में पेट्रो पदार्थो की कमी के संभावित हल के तौर पर देखा जा सकता है। उन्होंने अनुवांशिक रूप से परिवर्तित (जीएम) ऐसे जीव (ऑर्गेनिज्म) के विकास का दावा किया है जिसे सूर्य की रोशनी, जल और कार्बन डाईऑक्साइड के संपर्क में लाया जाता है तो वह डीजल जैसा ईधन स्रावित करता है। इस आधार पर बॉयोटेक्नोलॉजी कंपनी जोउल अनलिमेटेड ने दावा किया है कि वे बेहद कम दामों पर डीजल और इथेनॉल का उत्पादन कर सकते हैं। कैंब्रिज स्थित कंपनी ने अपनी अभूतपूर्व खोज को ईधन की स्वतंत्रता के तौर पर बयान किया है। डेली मेल की खबर के अनुसार, कंपनी का कहना है कि अब वह दुनिया के सबसे सस्ते जीवाश्म ईधन के बराबर कीमत वाले कृत्रिम डीजल को बना सकते हैं। जोउल ने यह भी दावा किया कि उनकी तकनीक से ऐसे ईधन को भी बनाया जा सकता है जिसका इस्तेमाल जेट इंजन में हो सके। जोउल के मुख्य कार्यकारी बिल सिम्स ने कहा कि हमने कुछ शानदार दावे किए हैं, इन सभी पर हमारा विश्वास है, सभी को हम मान्यता दे चुके हैं। ये सभी निवेशकों को दिखाए जा चुके हैं। उन्होंने कहा कि अगर हम आधे भी सही हैं तो यह दुनिया की सबसे बड़ी इंडस्ट्री में क्रांति ला देगा, जो तेल और गैस इंडस्ट्री है। अगर हम पूरे सही हुए तो ऐसा कोई कारण नहीं है जो यह तकनीक दुनिया को नहीं बदल सकती। कंपनी के अनुसार, जीव को सूर्य की रोशनी और कार्बन डाईऑक्साइड लेने वाला बनाया गया है, जिसके बाद यह ईथेनॉल या हाइड्रोकार्बन स्रावित करता है। यह डीजल जैस विभिन्न ईधनों का मूल तत्व होता है। हालांकि इन दावों को लेकर कई संशय भी जता चुके हैं। यूएस नेशनल रिन्युएबल एनर्जी लेबोरेटरी के वैज्ञानिक फिलिप पिनकॉस ने कहा कि जोउल तकनीक रोचक है मगर सिद्ध नहीं की गई है और उनकी कार्यक्षमता के दावों को कुछ दिक्कतें कमजोर बनाती हैं क्योंकि वे स्रावित ईधन को सिर्फ एकत्रित कर सकते हैं। विस्कोंसिन मेडिसन यूनिवर्सिटी में बायोएनर्जी रिसर्च सेंटर के निदेशक टिमोथी डोनोहु का कहना है कि जोउल को बड़े पैमाने पर अपनी तकनीक का प्रदर्शन करना चाहिए। उन्होंने कहा कि शायद यह काम कर जाए मगर सिर्फ एक वाक्य इसके बीच में अवरोध है, क्या यह काम करेगा? उन्होंने कहा कि इस बारे में कई अच्छे प्रयोग सामने आए हैं मगर बड़े पैमाने पर वह असफल हो गए। जोउल की स्थापना 2007 में हुए थी। कुछ सालों में इसने काफी गोपनीय तरीके से काम किया है। हाल ही में उसने खुलासा किया था कि वह क्या कर रहा है, इसमें सायनोबैक्टिरियम को पेटेंट कराना भी शामिल था। सौर ऊर्जा से ईधन के निर्माण का काम कई दशकों से चल रहा है, जैसे मक्का से ईथेनॉल बनाना या कवक से ईधन निकालना|