Sunday, April 10, 2011

मौसम गरीबों के लिए होता है


विज्ञान सभी के लिए वरदान हो सकता है, अगर सभी में उसका उपयोग करने की आर्थिक क्षमता हो जाए। विज्ञान भी आदमी ने ही बनाया है और आर्थिक विषमता भी आदमी ने ही पैदा की है। स्पष्ट है कि जिसे मानवता के लिए वरदान कहा जा सकता है, वह सभी के लिए वरदान नहीं बन पाया है। जैसे धर्म पर कुछ लोगों ने कब्जा कर रखा था, वैसे ही विज्ञान पर भी कुछ लोगों ने कब्जा कर रखा है
जब हम आठवीं-नौवीं कक्षा में पढ़ते थे, तब निबंधों की हर पुस्तक में इस विषय पर निबंध जरूर होता था, विज्ञान: वरदान या अभिशाप। जाहिर है, सभी निबंधों में वरदान अभिशाप पर भारी पड़ता था। पिछली शताब्दी में विज्ञान ने जो बड़े-बड़े करतब किए हैं, उनमें एक महत्त्वपूर्ण घटना है मौसम पर नियंत्रण। यह मामूली बात नहीं है। मौसम किसी एक गांव या शहर का नहीं होता, बड़े इलाके का होता है। मौसम से संघर्ष करने के लिए मनुष्य ने क्या-क्या नहीं किया। अब जाकर सम्भव हुआ है कि जाड़े में हीटर और गरमी में एअरकंडीशनर जैसी सुविधाएं पैदा हो पाई हैं। जाड़े के दिनों में बहुत-से लोग अपने गरम घर से निकलते हैं, गरम गाड़ी में बैठ जाते हैं और फिर गरम दफ्तर में दाखिल हो जाते हैं। इसी तरह, गरमी में वे ठंडे घर से निकलते हैं, ठंडी गाड़ी में बैठ जाते हैं और ठंडे दफ्तर में काम करते हैं। शानदार लोग अपनी-अपनी शानदार कोठियों से बारिश का आनंद लेते हैं। जीत लिया है न, आदमी ने मौसम को? गरमी दबे पांवों से, आहिस्ता-आहिस्ता हमारी जिंदगी में दाखिल हो रही है। अनुमान है कि इस साल प्रचंड गरमी पड़ेगी। लेकिन कौन जानता है। अब ऋतुओं के बारे में भविष्यवाणी करना सम्भव नहीं रहा। आदमी कु छ सोचता है, हो कुछ और जाता है। होता तो पहले भी ऐसा ही होगा, पर इतनी जल्दी-जल्दी नहीं। मौसम किसी का गुलाम नहीं है। अब वह उच्छृंखल भी हो गया है। कारण जलवायु परिवर्तन है, जो हमारी अपनी करतूत है। लम्बे दौर में इससे अमीर-गरीब सभी प्रभावित होंगे। मनुष्य अब भी इतना सचेतन नहीं हो पाया है कि वह दूर भविष्य की सोच सके। उसकी नजर एक या दो पीढ़ियों से आगे नहीं जाती। शायद वह समय आ रहा जब हम सभी को आगे के लिए सोचना ही पड़ेगा। जापान में सुनामी के बाद परमाणु विकिरण इसका सिर्फ एक छोटा-सा सबूत है। बड़ी-बड़ी विभीषिकाएं नेपथ्य में प्रतीक्षा कर रही होंगी। गरमी अभी ठीक से आई नहीं है, पर जिनके पास एअरकंडीशनर है या हैं, वे उसमें या उनमें गैस भरवाने लग गए हैं। जो कू लर पर निर्भर हैं, वे अभी नहीं जागे हैं, पर जल्द ही वे भी सक्रिय हो जाएंगे। बिजली के पंखे ज्यादा भरोसेमंद और किफायती साथी हैं। कई-कई साल रिपेयर के बिना चलते हैं। लेकिन जिनके पास इनमें से कु छ भी नहीं है वे गरमी का अभिशाप वैसे ही भोगने की मानसिक तैयारी कर रहे हैं; जैसे उन्होंने जाड़ा बिताया था। बरसात में भी इस वर्ग का बुरा हाल होता है। जिन झोपड़ियों में वे रहते हैं, वे बरसात-प्रूफ नहीं होती हैं। उनमें रहने वाले पुरु षों और खासकर स्त्रियों को बरसते-रिसते-टपकते पानी से जूझने में अपनी आधी ऊर्जा झोंक देनी पड़ती है। इस तरह हम देख सकते हैं कि मौसम सिर्फ गरीबों के लिए होता है। जिनके पास साधन हैं, वे मौसम से प्रभावित नहीं होते। उनके घर, वाहन और काम करने की जगहें मौसम के मोड़ों से प्रभावित नहीं होते। ये सदाबहार लोग हैं और सदाबहार जिंदगी जीते हैं। कहा जा सकता है, इसमें विज्ञान का क्या दोष है? वास्तव में विज्ञान का दोष नहीं है। दोष उनका है जो विज्ञान और टेक्नोलॉजी पर कब्जा किए हुए हैं। ऐसा नहीं है कि विज्ञान इस वर्ग के लिए वरदान है और बाकी लोगों के लिए अभिशाप है। वह सभी के लिए वरदान हो सकता है, अगर सभी में उसका उपयोग करने की आर्थिक क्षमता हो जाए। विज्ञान भी आदमी ने ही बनाया है और आर्थिक विषमता भी आदमी ने ही पैदा की है। स्पष्ट है कि जिसे मानवता के लिए वरदान कहा जा सकता है, वह सभी के लिए वरदान नहीं बन पाया है। जैसे धर्म पर कु छ लोगों ने कब्जा कर रखा था, वैसे ही विज्ञान पर भी कु छ लोगों ने कब्जा कर रखा है। इसलिए कहा जा सकता है कि जो भी अच्छी चीजें हैं, वे सम्पूर्ण मानवता के लिए नहीं हैं। भारत के 99 प्रतिशत लोगों ने अभी तक प्लेन से सफर नहीं किया होगा। 50 प्रतिशत लोग ट्रेन में नहीं चढ़े होंगे। इससे भी ज्यादा लोग प्राइवेट कार में नहीं बैठे होंगे। क्या यह नारा लगाया जा सकता है कि हर उस नई सुविधा को बंद करो जो देश के अधिकांश लोगों की पहुंच के बाहर है! या तो विज्ञान को मुक्त करो या उसे तब तक स्थगित रखो जब तक उसे मुक्त कराने की स्थितियां न बन जाएं। क्या विज्ञान को विशिष्ट लोगों के चंगुल से कभी मुक्त कराया जा सकेगा? सम्पन्न देशों ने ऐसा कर दिखाया है क्योंकि उनकी आबादी कम है और उनके पास पैसा ज्यादा है। उनकी तुलना हम अपने देश से करें, तो हमारे हाथों से तोते उड़ जाएंगे। कल्पना कीजिए कि देश के हर आदमी को एअरकंडीशनर और हीटर मुहैया किया जाए, सबको चलने के लिए मोटरकार दी जाए, दूर की और जल्दी यात्रा करनी हो तो हवाई जहाज से यात्रा करने की सुविधा उपलब्ध कराई जाए, रहने के लिए सीमेंट या कंक्रीट के मकान बनाए जाएं, हर घर में प्लाज्मा टेलीविजन हो आदि- आदि। तब कितने सीमेंट, फाइबर आदि जैसे भौतिक संसाधनों की जरूरत होगी? यह भी मान लीजिए कि देश की आबादी डेढ़ अरब पर जा कर स्थिर हो जाती है, तब भी विज्ञान और टेक्नोलॉजी द्वारा प्रदत्त आधुनिकतम सुविधाओं को हर आदमी तक पहुंचाना क्या भारत के उपलब्ध संसाधनों की क्षमता के दायरे में आ सकता है? 50-100 साल के बाद भी आ सकेगा? क्या देश में कभी इतनी बिजली पैदा की जा सकती है जिससे पूरी आबादी इसका लाभ प्राप्त कर सके? अगर नहीं, अगर यह असम्भव है, तो हम जिसे विकास और उन्नति कह रहे हैं, वह क्या है? किसके लिए है? क्या यह विचार का विषय नहीं है? क्या यह भी विचार का विषय नहीं है कि जिसे भ्रष्टाचार कहते हैं, वह देश के सीमित संसाधनों में लूट का अपना हिस्सा सुनिश्चित करने के लिए वह अनिवार्य हो उठता है?


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