विज्ञान संबंधी शोध के क्षेत्र में अग्रणी होने के बावजूद भारत अंतरराष्ट्रीय मान्यता या श्रेय पाने में पिछड़ क्यों जाता है। यह विचारणीय मुद्दा है। पिछले वर्ष टेस्ट ट्यूब बेबी की सफलता में मेडिसिन का नोबल पुरस्कार 32 वर्ष बाद डॉ. राबर्ट जी एडर्वड और पेट्रिक स्टेपटो को दिया गया। जुलाई 1978 में इनके प्रयासों से आईवीएफ लुईस दुनिया में आई थी। भारतीय डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय ने लुईस के जन्म के तीन महीने बाद ही दुनिया की दूसरी टेस्ट ट्यूब बेबी दुर्गा को जन्म दिलवाया पर दुर्भाग्य से उनके कार्य की प्रशंसा के बजाय तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा उनके अनुसंधान को प्रकाशित होने से न सिर्फ रोका गया बल्कि तंग होकर 1981 में वह आत्महत्या करने पर मजबूर हो गये। आखिर में भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद ने 2005 में उनके काम को मान्यता दी। पर यह सब इतनी देर से हुआ कि डॉ. मुखोपाध्याय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के सम्मान को भी ठेस लगी। इसी तरह मार्कोनी को टेलीग्राफ की खोज के लिए दुनिया ने सराहा, जबकि कहा जाता है कि जगदीशचंद्र बसु इस पर पहले ही अनुसंधान कर चुके थे। माना कि गुलामी के दौर में भारतीयों के शोधों को अंग्रेज महत्व नहीं देते थे लेकिन दुर्भाग्य से आजादी के बाद भी अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियों को वरीयता नहीं दी जाती। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के कई कनिष्ठ वैज्ञानिकों की आत्महत्या की खबरें जब-तब आती रही हैं। आरोप लगते रहे हैं कि उनकी उपलब्धि का श्रेय उनके वरिष्ठ स्वयं लेने की कोशिश करते हैं। हमारे शोध संस्थानों में ऐसी स्थितियां अब भी बनी हुई हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में नये-नये अनुसंधान होने चाहिए लेकिन अव्यवस्था और नौकरशाही के दबाव में यह संस्थान कुछ भी करने में अपने को उतना सक्षम नहीं पा रहा है। कुछ वर्षों पहले एक विश्वसनीय सूत्र ने बताया था कि संस्थान में अत्याधुनिक मशीनें चलाने वाले ही नहीं थे। ऐसे अनेक चिकित्सक जो अब संस्थान छोड़ चुके हैं और निजी चिकित्सा संस्थानों में अपनी सेवायें देने के साथ सफल शोध कर रहे हैं इसका खुलासा करते हैं। इनमें एक डॉ. जीसी तलवार जो नेशनल इंस्टीट्यूट आफ इम्यूनोलॉजी के संस्थापक हैं का दावा है कि विगत में उन्होंने दो टीकों की खोज की थी पर उनके विभागाध्यक्ष ने उस शोध को रोकने की पूरी कोशिश की। डा. तलवार याद करते हैं कि 1956 में जब एआईआईएमएस खुला था तो उनकी नियुक्ति ऐसोसिएट प्रोफेसर के रूप में हुई थी। बाद में जब प्रोफेसर के पद सृजित हुए तो डॉ. तलवार सहित संस्थान के 22 लोगों को कोई वरीयता नहीं दी गई और बाहरी लोगों को नियुक्त किया गया। वह मानते हैं जब तक किसी संस्थान में कोई गाड फादर न हो, तब तक शोधार्थी सही ढंग से शोध नहीं कर सकता। 1970 में जब वह कुष्ठ रोग के टीके का क्लिनिकल ट्रायल कर रहे थे तब भी उन्हें भारी अवरोधों का सामना करना पड़ा था और इससे वह कार्य तीन वर्ष पीछे हो गया। डॉ. तलवार ने जनसंख्या नियंतण्रके टीके का ईजाद किया तो उस पर भी विवाद हुआ। कहा गया कि एंटी एचसीजी टीका महिलाओं को बांझ बना देता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब डॉ. तलवार के शोधपत्र पर जनसंख्या परिषद के निदेशक डॉ शेल्डन का ध्यान गया तो भारत सरकार के तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. कर्ण सिंह को इसकी जानकारी दी गई। बाधाओं के बावजूद 1980 में इस टीके का पेटेंटीकरण हुआ। तलवार को कनाडा और राकफेलर संस्थान से आर्थिक सहायता मिली। यह भी आरोप है कि अक्सर शोध पर वरिष्ठ सदस्य अपना नाम पहले रखवाने का दबाव डालते हैं। जबकि शोध पत्र कनिष्ठ सहयोगी द्वारा तैयार किया गया होता है। जबकि विदेशों के मेडिकल जनरल में शोध पत्र तैयार करने वाले का नाम पहले और निरीक्षक का बाद में छपता है। भारत में यह प्रक्रिया एकदम उल्टी है। डा. अनूप मिश्रा जो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के मेडिसिन विभाग में 30 वर्षों तक प्रोफेसर रहे, का भी आरोप है कि उनके कनिष्ठ सहयोगियों को एचआईवी पर शोध करने की अनुमति नहीं दी गई। यहां तक कि रोगी के रजिस्ट्रेशन, उसका नाम, पता और फोन नंबर आदि विभागाध्यक्ष किसी को नहीं बताते। यानी अफसरशाही शोध कायरें में बाधा पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। उनका अनुभव है कि अनुसंधान में काम आने वाले छोटे से छोटे उपकरण के लिए कई चैनलों से हो कर गुजरना पड़ता है। जबकि निजी संस्थानों में जैसे ही एथिक्स पैनल शोध पत्र को स्वीकृति देता है, एक महीने के भीतर शोध कार्य शुरू हो जाता है। वैज्ञानिक प्रगति के निमित्त आज हमें इन कमियों को दूर करने की आवश्यकता है, तभी ब्रेन ड्रेन को रोक सकते हैं। जरूरी नहीं कि यह ब्रेन देश से बाहर जाए। क्योंकि आज के समय में उसकी प्रतिभा का उपयोग कोई भी देश कहीं भी बैठ कर अपने हित में कर सकता है। वैज्ञानिकों के लिए शोध का अनुकूल माहौल होना चाहिए। नहीं तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश के अनुसंधानों का पेटेंट अपने नाम करवाती जाएंगी। और हमें इनका कोई श्रेय नहीं मिल पाएगा।
Thursday, February 10, 2011
वैज्ञानिक शोधों के लिए हो अनुकूल माहौल
विज्ञान संबंधी शोध के क्षेत्र में अग्रणी होने के बावजूद भारत अंतरराष्ट्रीय मान्यता या श्रेय पाने में पिछड़ क्यों जाता है। यह विचारणीय मुद्दा है। पिछले वर्ष टेस्ट ट्यूब बेबी की सफलता में मेडिसिन का नोबल पुरस्कार 32 वर्ष बाद डॉ. राबर्ट जी एडर्वड और पेट्रिक स्टेपटो को दिया गया। जुलाई 1978 में इनके प्रयासों से आईवीएफ लुईस दुनिया में आई थी। भारतीय डॉक्टर सुभाष मुखोपाध्याय ने लुईस के जन्म के तीन महीने बाद ही दुनिया की दूसरी टेस्ट ट्यूब बेबी दुर्गा को जन्म दिलवाया पर दुर्भाग्य से उनके कार्य की प्रशंसा के बजाय तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा उनके अनुसंधान को प्रकाशित होने से न सिर्फ रोका गया बल्कि तंग होकर 1981 में वह आत्महत्या करने पर मजबूर हो गये। आखिर में भारतीय आयुर्विज्ञान अनुसंधान परिषद ने 2005 में उनके काम को मान्यता दी। पर यह सब इतनी देर से हुआ कि डॉ. मुखोपाध्याय ही नहीं, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भारत के सम्मान को भी ठेस लगी। इसी तरह मार्कोनी को टेलीग्राफ की खोज के लिए दुनिया ने सराहा, जबकि कहा जाता है कि जगदीशचंद्र बसु इस पर पहले ही अनुसंधान कर चुके थे। माना कि गुलामी के दौर में भारतीयों के शोधों को अंग्रेज महत्व नहीं देते थे लेकिन दुर्भाग्य से आजादी के बाद भी अनेक वैज्ञानिक उपलब्धियों को वरीयता नहीं दी जाती। भारतीय कृषि अनुसंधान परिषद के कई कनिष्ठ वैज्ञानिकों की आत्महत्या की खबरें जब-तब आती रही हैं। आरोप लगते रहे हैं कि उनकी उपलब्धि का श्रेय उनके वरिष्ठ स्वयं लेने की कोशिश करते हैं। हमारे शोध संस्थानों में ऐसी स्थितियां अब भी बनी हुई हैं। अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान में नये-नये अनुसंधान होने चाहिए लेकिन अव्यवस्था और नौकरशाही के दबाव में यह संस्थान कुछ भी करने में अपने को उतना सक्षम नहीं पा रहा है। कुछ वर्षों पहले एक विश्वसनीय सूत्र ने बताया था कि संस्थान में अत्याधुनिक मशीनें चलाने वाले ही नहीं थे। ऐसे अनेक चिकित्सक जो अब संस्थान छोड़ चुके हैं और निजी चिकित्सा संस्थानों में अपनी सेवायें देने के साथ सफल शोध कर रहे हैं इसका खुलासा करते हैं। इनमें एक डॉ. जीसी तलवार जो नेशनल इंस्टीट्यूट आफ इम्यूनोलॉजी के संस्थापक हैं का दावा है कि विगत में उन्होंने दो टीकों की खोज की थी पर उनके विभागाध्यक्ष ने उस शोध को रोकने की पूरी कोशिश की। डा. तलवार याद करते हैं कि 1956 में जब एआईआईएमएस खुला था तो उनकी नियुक्ति ऐसोसिएट प्रोफेसर के रूप में हुई थी। बाद में जब प्रोफेसर के पद सृजित हुए तो डॉ. तलवार सहित संस्थान के 22 लोगों को कोई वरीयता नहीं दी गई और बाहरी लोगों को नियुक्त किया गया। वह मानते हैं जब तक किसी संस्थान में कोई गाड फादर न हो, तब तक शोधार्थी सही ढंग से शोध नहीं कर सकता। 1970 में जब वह कुष्ठ रोग के टीके का क्लिनिकल ट्रायल कर रहे थे तब भी उन्हें भारी अवरोधों का सामना करना पड़ा था और इससे वह कार्य तीन वर्ष पीछे हो गया। डॉ. तलवार ने जनसंख्या नियंतण्रके टीके का ईजाद किया तो उस पर भी विवाद हुआ। कहा गया कि एंटी एचसीजी टीका महिलाओं को बांझ बना देता है। अंतरराष्ट्रीय स्तर पर जब डॉ. तलवार के शोधपत्र पर जनसंख्या परिषद के निदेशक डॉ शेल्डन का ध्यान गया तो भारत सरकार के तत्कालीन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. कर्ण सिंह को इसकी जानकारी दी गई। बाधाओं के बावजूद 1980 में इस टीके का पेटेंटीकरण हुआ। तलवार को कनाडा और राकफेलर संस्थान से आर्थिक सहायता मिली। यह भी आरोप है कि अक्सर शोध पर वरिष्ठ सदस्य अपना नाम पहले रखवाने का दबाव डालते हैं। जबकि शोध पत्र कनिष्ठ सहयोगी द्वारा तैयार किया गया होता है। जबकि विदेशों के मेडिकल जनरल में शोध पत्र तैयार करने वाले का नाम पहले और निरीक्षक का बाद में छपता है। भारत में यह प्रक्रिया एकदम उल्टी है। डा. अनूप मिश्रा जो अखिल भारतीय आयुर्विज्ञान संस्थान के मेडिसिन विभाग में 30 वर्षों तक प्रोफेसर रहे, का भी आरोप है कि उनके कनिष्ठ सहयोगियों को एचआईवी पर शोध करने की अनुमति नहीं दी गई। यहां तक कि रोगी के रजिस्ट्रेशन, उसका नाम, पता और फोन नंबर आदि विभागाध्यक्ष किसी को नहीं बताते। यानी अफसरशाही शोध कायरें में बाधा पहुंचाने में कोई कसर नहीं छोड़ती। उनका अनुभव है कि अनुसंधान में काम आने वाले छोटे से छोटे उपकरण के लिए कई चैनलों से हो कर गुजरना पड़ता है। जबकि निजी संस्थानों में जैसे ही एथिक्स पैनल शोध पत्र को स्वीकृति देता है, एक महीने के भीतर शोध कार्य शुरू हो जाता है। वैज्ञानिक प्रगति के निमित्त आज हमें इन कमियों को दूर करने की आवश्यकता है, तभी ब्रेन ड्रेन को रोक सकते हैं। जरूरी नहीं कि यह ब्रेन देश से बाहर जाए। क्योंकि आज के समय में उसकी प्रतिभा का उपयोग कोई भी देश कहीं भी बैठ कर अपने हित में कर सकता है। वैज्ञानिकों के लिए शोध का अनुकूल माहौल होना चाहिए। नहीं तो बहुराष्ट्रीय कंपनियां देश के अनुसंधानों का पेटेंट अपने नाम करवाती जाएंगी। और हमें इनका कोई श्रेय नहीं मिल पाएगा।
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